ये सूरत बदलनी चाहिए...

अपने सब्जी वाले दोस्त की दुकान के आगे खड़ा हुआ नए पुल के लिए चल रहा निर्माण कार्य देखता हूँ. चार मशीनें हैं जो एक बड़े कटर को उठा कर ज़मीन पर मारती है. कल कारखानों से आने वाले लयबद्ध शोर का प्रतिरूप कानों से टकराता है. भाई अगर भ्रष्टाचार न होता तो ? ऐसा कह कर मेरे मित्र आसमान की ओर देखते हैं. वे भी एक आम आदमी की तरह उस सर्वशक्तिमान से अपेक्षा रखते हैं कि वह अवतार भले ही न ले मगर एक दिन अपनी जादुई ताकत से हमारा कल्याण करेगा. उनकी पैंतालीस साल की उम्र में अब तक उस उपरवाले ने कोई चमत्कार नहीं किया है.

जड़ता की प्राचीर से जकड़ा हुआ हमारा समाज बहुत पहले की बात नहीं है और हम रुढियों से उपजे कष्टों की बेड़ियों में बंधे हुए आदिम कबीलाई लोग हैं. आज इस मुकाम पर खड़े हुए पाता हूँ कि जिस भारत को आज़ाद कह कर अंग्रेज छोड़ गए थे, वह वास्तव में दिग्भ्रमित, असंगठित समूहों और कबीलों का भौगोलिक आकार मात्र था. उसका उत्थान हुआ मगर वह अपेक्षित रूप से बहुत कम है. यही हमारी निराशा है. हमारे पास अतुलनीय ज्ञान था किन्तु श्रेणियों की सीढियों पर सबसे ऊपर बैठे हुए चंद लोग उस पर मालिकाना हक़ का दावा किये हुए हैं. इसी का हमें अफ़सोस है. अँधेरा अभी भी इतना है कि आम अवाम अब भी नोकदार जूतियों के नीचे कुचल दिए जाने की ही हैसियत रखता है. आज़ादी के सातवे दशक की ओर बढ़ते हुए हम पाते हैं कि समय ने बहुत कुछ बदल दिया है. समय, जो एक काल्पनिक घड़ियाल है. जिसे हर वस्तु और प्राणी के भीतर रिवर्स मोड में फिट किया हुआ है. यह सिर्फ़ उलटी गिनती करता है. गिनती पूरी, परिणाम शून्य. ऐसा ही हाल सभ्यताओं का होता है.

भ्रष्ट होने के कई सारे अर्थ है. अपने कर्म और आचरण से गिरा हुआ, पद से निम्न, आधार से नीचे, दूषित, अशुद्ध, गंदा, अस्वच्छ आदि. भ्रष्ट न होना आदर्श स्थिति है. हालाँकि मैं विज्ञान से सहमत हूँ कि आदर्श स्थिति को हर हाल में नहीं बनाये रखा जा सकता. हम मनुष्य से जिस प्रकार के आचरण की अपेक्षा करते हैं, वह नदी के बहाव के विपरीत बहने का काम है. चाणक्य ने राज्य के नागरिकों और कर्मचारियों के बारे में कहा था कि "वे समुद्र की मछलियाँ हैं. उसी का जल पियेंगी और उसे ही अस्वच्छ करेंगी." इस कर्म में परिवर्तन इसलिए संभव नहीं है कि हमारी सोच एक निषेध का शिलाखंड है. इसको ईमानदारी और नैतिकता के पाठ पढाये जाते हैं किन्तु उनका प्रवेश निषिद्ध ही रहता है. सत्य, अहिंसा, ईमानदारी और शुचिता जैसी किसी भी शय का उपयोग हम अपनी सुविधा के अनुसार करना पसंद करते हैं.

परसों नगर परिषद् के कर्मचारी स्टेडियम की साफ़ सफ़ाई में लगे थे. उन्होंने यह कार्य सरकारी आदेश से बाध्य होकर किया. उनके भीतर इस कार्य को कर पाने का सामर्थ्य इस विचार से उत्प्रेरित था कि साल भर सरकार से तनख्वाह लेते हैं तो साल में दो बार तो थोड़ा काम करना ही चाहिए. उनके भीतर इतनी नैतिकता बची है. स्वतंत्र भारत की सालगिरह पर सूर्योदय हुआ. स्टेडियम में रंगीन ध्वज और पताकाएं लहराई. बच्चों ने व्यायाम प्रदर्शन किया, फौजी बूटों ने अपनी ठोकरों से आसमान को गर्द से भर दिया. तीन घंटे के कार्यक्रमों के बाद जय हिंद के उदघोष के साथ बड़े जलसे का विसर्जन हो गया. स्टेडियम में हम हमारी नैतिकता, आचरण की विशेषताओं और देशप्रेम के रूप में प्लास्टिक की खाली बोतलें, चाट खाने की डिस्पोजेबल प्लेट्स, कुल्फी की डंडियाँ, टूटी हुई कुर्सियां, पान और गुटखों के पीक से भरी हुई दीवारें और भी जो हमसे संभव हुआ छोड़ गए. ऐसा आचरण करते हुए हम जब सरकारों को भ्रष्ट कहते हैं तो यह लड़ाई कभी न खत्म होने वाली होंगी.

कई दिनों से हल्ला है. सरकार की चूलें हिला दी जाएगी. इस ऐतिहासिक कार्य के लिए, मेरे देश के लोग मसखरे समाचार विक्रेताओं का मुंह देख रहे हैं. प्रकाशन वालों की एक अंगुली सरकार और चार ख़ुद की तरफ है. क्या राज्य और व्यवस्था का निर्माण देश के एक चुने हुए मुखिया और उसके चंद सिपहसालारों से होता है. क्या न्यायपालिका किसी जादुई डंडे पर सवार है कि भ्रष्टाचार, अपराध और हिंसा को बुहार कर बंगाल की खाड़ी में डाल देगी. लम्बी जुबान वाले बड़बोले सामान्य रूप से सत्ता परिवर्तन के आकांक्षी हैं. वे समाज को व्यवस्था परिवर्तन का झूठा सपना दिखा रहे हैं. अभी उस प्रतिकारिणी प्रभा का आलोक फैला नहीं है जो जाति और वर्ग आधारित समाज, व्यवस्था और कानून को कुचल सके. समय की घड़ी में अभी कई फेरे बाकी है. अभी भी हिंदुस्तान में रोटी आराम से न सही पर नसीब जरुर है.

वे भले ही किसी मुंह से झंडा फहराएँ या न फहराएँ, हम जिस आन्दोलन में जायेंगे, वहा क्या छोड़ कर आयेंगे ? अपनी बदचलनी, भौतिकता की भूख का दैत्य, बेशऊर जीने की आदत, देश को लूट खाने की नियत, अपराध के जीवाणु, सांप्रदायिक सोच, कट्टरता... क्या क्या छोड़ कर आयेंगे. या फ़िर हर बार की तरह हमारे ही श्रम की कीमत से बने बेरीकेट्स को तोड़ते हुए एक कचरे का ढेर छोड़ आयेंगे. बंध्याकृत पुलिस के सर फोड़ कर अपने बेबसी के गुस्से के निशान छोड़ कर आयेंगे. या फ़िर पान और पीक की तरह खून बहा कर दीवारों को बदरंग करेंगे. हमारे राष्ट्र प्रेम के प्रतीक यही बचे हैं. नैतिकता के अभाव में हमारी हताशा का बूमरेंग लौट कर हमारे ही सर आएगा. निरंकुश शासन की जड़ों में ये खाद और पानी का काम करेगा.

मैंने बचपन में पढ़ा था कि क्रांतियों के जनक बुद्धिजीवी लोग होते हैं. वे हमारा पथप्रदर्शन करते हैं. उनके दिखाए हुए रास्ते पर चल कर सुखी और समृद्ध राष्ट्र का निर्माण होता है. मेरे मन में प्रश्न है कि ये रास्ता किसे दिखाना है ? सरकार जैसे एक तंत्र को जिसे हमने चुना है और जिसे आने वाले निर्धारित समय में पदच्युत करने का अधिकार हमारे पास बचा हुआ है. या फ़िर आम नागरिक को सामाजिक होने के लिए दी जाने वाली शिक्षा को दुरस्त किये जाने की जरुरत है. निजीकरण के नाम पर बेच दी गयी स्कूलें और यूनिवर्सिटीज़ को पुनः जीवित करना है ताकि खरीद की कागज़ी शिक्षा का स्थान गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा ले सके. हम गुणों के ग्राहक हो सकें. नैतिक लोगों की सामूहिक आह पञ्च तत्वों के भीतरी विस्फोट से उठने वाले रौंद्र धूमकेतुओं से भयानक होती है. वह तमाम तरह के अपशकुनों कि रौंदती हुई एक निर्मल संसार की रचना करती है. अगर हमारी कामना भ्रष्टता से मुक्त होने की है तो इसका रास्ता भीतर की ओर खुलता है.

समस्त प्राणी प्रदर्शन प्रिय होते हैं. वे अपने स्वरूप और आकार को वास्तविकता से ऊंचा और भव्य दिखाना चाहते हैं. यही हाल कमोबेश बौद्धिक होने में भी है. इस बार के अनुष्ठान के बारे में सोचते हुए मुझे उन अनपढ़ बंधुआ लोगों की याद आती है जिन्होंने अट्ठारह सौ सत्तावन में कोशिश की थी कि एक राष्ट्रव्यापी आन्दोलन हो. देश का हर नागरिक कुशासन और परतंत्रता से मुक्त होने के लिए घर - परिवार का त्याग करे. लेकिन इस बार इन पढ़े लिखे लोगों के दस सदस्यीय समूह के पास ऐसा कोई एजेंडा नहीं है कि गाँव कस्बों तक भ्रष्टाचार के विरुद्ध आम आदमी को कैसे लामबद्ध किया जाये. यह कई बार चंद ज्ञानी लोगों द्वारा बौद्धिकता के प्रदर्शन का अनुष्ठान अथवा उनकी आत्ममुग्धता का गान जान पड़ता है.

सियासत के लोग दुनिया के हर कोने में बदनाम है. उनको हेय दृष्टि से देखा जाता है. वे जिन कुर्सियों पर विराजते हैं. वे काम कुर्सियां है. उनके पाए अहंकार से बने हैं. उनकी गद्दियाँ लोभ की खाल से मढ़ी हुई है. पीठ अनैतिक लालसाओं बनी है. ऐसे आसन पर विराजमान साधारण या विशिष्ठ प्रतिनिधियों से जनपक्षधरता की आशा करना फिजूल की बात है. वे जिस कानून के तहत चुन कर आये हैं. उसका जनता की अपेक्षा अपने हित में सर्वाधिक उपयोग करेंगे. वे जनता की उम्मीद की कटोरी में हर बार नए मुद्दे का अंगारा डाल कर सुख शैय्या पर लेट जायेंगे.

खैर ! मुझे लगता है कि इस बार गाँधी टोपीवाले के आह्वान पर हर हिन्दुस्तानी की अंतरात्मा का नरसिंहावतार हो चुका है. उसने अपने मन की भ्रष्टता को धो डाला है. वह राष्ट्र की उन्नति हेतु अपने लिए निर्धारित अथवा सौंपे गए गए कार्य के अतिरिक्त कुछ योगदान देना चाहता है. वह आज से देश से भ्रष्टाचार की सफाई के लिए प्रतीकात्मक रूप से नगर परिषद् के कर्मचारियों का इंतजार किये बिना स्वच्छता के कार्य में लग जायेगा. सड़क पर चलते हुए नियम नहीं तोड़ेगा. राशन अथवा अन्य जनसुविधाओं के लिए लाइन में खड़ा होगा और अपने कीमती समय के जाया होने का रोना नहीं रोयेगा. वह ईमानदारी से जियेगा...

नैतिकता की मशीने हमारी जड़ हुई चेतना पर अपने सत्य के कटर से प्रहार करेगी और निषेध के शिलाखंड को चूर चूर कर देगी. आमीन ! ऐसा ही हो ! वाहे गुरु, मुझे भी सद्बुद्धि दो !


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