बिसात-ए-दिल भी अजीब है

मैंने सच कहा था कि ईमानदारी से लडूंगा लड़ाई. अपने हाथियों के बाड़े हरी टहनियों से भर दूंगा. घोड़ों के लिए काले चने और ऊँटों के मुंह के आगे बेर की मीठी पत्तियों से भरा बोरा रख दूंगा. मैं अपनी श्रेष्ठ योजना बनाऊंगा कि तुम फ़िर जीत कर उदास न हो जाओ.

घोड़ों के कानों में कहूँगा कि खेल से लौटते ही उन्हें अस्तबल में नहीं बांधूंगा. हाकिम के ओरण में छोड़ दूंगा, जहाँ वे हिनहिना सकेंगे किसी अन्दर की बात पर. ऊँटों को दूंगा प्रलोभन कि इस बार शीत ऋतु में सारी यात्रायें स्थगित कर दी जाएगी. वे अपने लटके हुए होठों के बीच से अपनी गलफाड़ से ब्ला बल बल की आवाज़ निकालते हुए ख़ुद को घोषित कर सकेंगे रेगिस्तान का पिता. हाथी हालाँकि अपने मृत प्रियजनों की स्मृतियों में है. वे बची हुई हड्डियाँ टटोलते हुए संवेदनाएं व्यक्त करते, दुश्मन को ढहा देने के विचार से भरे हैं. लेकिन उनको भी मना ही लूँगा कि मेरे पास कुछ छलावे के जंगल हैं. उनमें मैंने सच्चाई के पेड़ों पर झूठ की कलमें रोप रखी हैं, वहां सच धरती को थाम के रखता है और झूठ फलता फूलता जाता है.

इतनी वृहद् योजना के बाद लगातार चौथी बार शह और मात सुनते हुए गुम हूँ ख़याल में कि मेरे घोड़े क्यों आलसी हो गए है, दूसरे घर तक जाने से पहले गिर जाते हैं. लगातार गिरती बारिश से ऊँटों को हो गया है वहम कि शरद आ गया है. हाथी जाने किस अफ़सोस में पी गए हैं, मेरी सारी शराब और उठते गिरते हुए चलते हैं, ऊंट की टेढ़ी चाल ?

मेरे बच्चे, मुझे तुम्हारी इस बात पर अभी भी यकीन नहीं है कि ये लकड़ी के मोहरे भर हैं और मैं उदास हूँ इसलिए खेल नहीं पा रहा सलीके से.

कम होंगे इस बिसात पे हम जैसे बदक़िमार
जो चाल हम चले सो निहायत बुरी चले [ज़ौक]

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