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Showing posts from August, 2011

कोई भुला भी न सके...

भीगी हुई आँखों से देखते हुए अपने पांवों को समेटने लगी. उसने ख़ुद को इस कदर सौंप रखा था कि सिमट जाना असंभव था. वह रंग थी और बिखर गयी थी . ख़यालों की नामुराद दुनिया आँखों के सामने उग आई. अब वह उन धुंए से लिपटी रहने वाली अँगुलियों को छू कर देख सकती थी. कितने ही बरस पहले जिन खुशबुओं को हवा अपने साथ उड़ा ले गयी. वे अचानक काले घने बालों से उतर कर लम्बे लाल रंग के सोफे पर बैठी थी. एक शाम बुझते हुए साये दीवार पर छूट गए. सालों तक दीवार का वह हिस्सा उतना ही ताज़ा बना रहा. वह आते जाते अंगुली के नर्म नाजुक पोरों से दीवार की उसी जगह पर एक अदृश्य रेखा खींचती हुई चलती थी. उसी दीवार से छन कर बेग़म अख्तर की आवाज़ आती थी. न जाने उसका मुहब्बत में हश्र क्या होगा जो दिल में आग लगा ले मगर बुझा न सके... कुछ नहीं हुआ साल गिरते गए और जे एल ऍन मार्ग पर मौसमों के साथ नए फूल खिलते गए. सफ़ेद संगमरमर के लम्बे चौड़े फर्श पर प्रार्थनाओं के बचे हुए शब्द बिखर गए. उसके बालों में हाथ फेरते हुए लड़की ने कहा. इधर आओ मेरे पास, यहाँ मेरी धड़कनों के करीब. तुम यहाँ रहते हो. गिरहों से उठती खुशबू से पर

ऐ ज़िन्दगी गले लगा ले

सिंधी केम्प बस अड्डे की सुबह बादलों की ढाल से ढकी हुई हल्की उमस बुन रही थी. मैन गेट के आगे सायकल रिक्शे कतार में खड़े थे. उनके मालिक कम पानी वाले बूढ़े दरख्तों जैसे थे. जिन्होंने इस शहर को पाँव पसारते हुए देखा, जिन्होंने मजदूरी के लिए जयपुर की बूढ़ी गलियों से आशिकी कर रखी थी. उनके काले धूप जले चेहरों पर सफ़ेद तिनके उगे हुए थे. एक रिक्शे की तिरपाल से बनी छत पर प्लास्टिक के दो पुराने चप्पल रखे थे. उसमें सोये हुए आदमी को देखते हुए ख़याल आया कि वह बहुत निर्जीव किन्तु रिक्शे सा ही वाचाल हो सकता है. इधर सड़क पर चलने को तैयार खड़े रिक्शे के पास चालीस पार उम्र के दो आदमी खड़े थे. दोनों में एक समानता थी कि उनकी हड्डियों पर मांस नहीं था. एक का चेहरा लम्बा और सीधा था. दूसरे का गोल और पीठ के साथ नीचे की और झुका हुआ. लम्बे वाले के चेहरे पर कुछ शिकायतें रखी थी. वे लहरों की तरह होठों के पास से उठती और कान की तलहटी तक जाकर समाप्त हो जाती. उसके होठों के ऊपर चिपकाई हुई नाक के ऊपर दो आँखें रखी थी. उन्होंने दुनिया की चकाचौंध से डर कर गहरे खड्डों में छुप जाने की आदत बना रखी थी. मैंने सोचा कि इस आदमी को अगर अप

ये सूरत बदलनी चाहिए...

अपने सब्जी वाले दोस्त की दुकान के आगे खड़ा हुआ नए पुल के लिए चल रहा निर्माण कार्य देखता हूँ. चार मशीनें हैं जो एक बड़े कटर को उठा कर ज़मीन पर मारती है. कल कारखानों से आने वाले लयबद्ध शोर का प्रतिरूप कानों से टकराता है. भाई अगर भ्रष्टाचार न होता तो ? ऐसा कह कर मेरे मित्र आसमान की ओर देखते हैं. वे भी एक आम आदमी की तरह उस सर्वशक्तिमान से अपेक्षा रखते हैं कि वह अवतार भले ही न ले मगर एक दिन अपनी जादुई ताकत से हमारा कल्याण करेगा. उनकी पैंतालीस साल की उम्र में अब तक उस उपरवाले ने कोई चमत्कार नहीं किया है. जड़ता की प्राचीर से जकड़ा हुआ हमारा समाज बहुत पहले की बात नहीं है और हम रुढियों से उपजे कष्टों की बेड़ियों में बंधे हुए आदिम कबीलाई लोग हैं. आज इस मुकाम पर खड़े हुए पाता हूँ कि जिस भारत को आज़ाद कह कर अंग्रेज छोड़ गए थे, वह वास्तव में दिग्भ्रमित, असंगठित समूहों और कबीलों का भौगोलिक आकार मात्र था. उसका उत्थान हुआ मगर वह अपेक्षित रूप से बहुत कम है. यही हमारी निराशा है. हमारे पास अतुलनीय ज्ञान था किन्तु श्रेणियों की सीढियों पर सबसे ऊपर बैठे हुए चंद लोग उस पर मालिकाना हक़ का दावा किय

बिसात-ए-दिल भी अजीब है

मैंने सच कहा था कि ईमानदारी से लडूंगा लड़ाई. अपने हाथियों के बाड़े हरी टहनियों से भर दूंगा. घोड़ों के लिए काले चने और ऊँटों के मुंह के आगे बेर की मीठी पत्तियों से भरा बोरा रख दूंगा. मैं अपनी श्रेष्ठ योजना बनाऊंगा कि तुम फ़िर जीत कर उदास न हो जाओ. घोड़ों के कानों में कहूँगा कि खेल से लौटते ही उन्हें अस्तबल में नहीं बांधूंगा. हाकिम के ओरण में छोड़ दूंगा, जहाँ वे हिनहिना सकेंगे किसी अन्दर की बात पर. ऊँटों को दूंगा प्रलोभन कि इस बार शीत ऋतु में सारी यात्रायें स्थगित कर दी जाएगी. वे अपने लटके हुए होठों के बीच से अपनी गलफाड़ से ब्ला बल बल की आवाज़ निकालते हुए ख़ुद को घोषित कर सकेंगे रेगिस्तान का पिता. हाथी हालाँकि अपने मृत प्रियजनों की स्मृतियों में है. वे बची हुई हड्डियाँ टटोलते हुए संवेदनाएं व्यक्त करते, दुश्मन को ढहा देने के विचार से भरे हैं. लेकिन उनको भी मना ही लूँगा कि मेरे पास कुछ छलावे के जंगल हैं. उनमें मैंने सच्चाई के पेड़ों पर झूठ की कलमें रोप रखी हैं, वहां सच धरती को थाम के रखता है और झूठ फलता फूलता जाता है. इतनी वृहद् योजना के बाद लगातार चौथी बार शह और मात सुनते हुए

अबूझ और उदास सपनों की रातें

एक धुंधलका था. चुप्पी थी और चंद शक्लें थी. कहीं जा रहा था. रास्ते की पहचान को लेकर कोई जिज्ञासा नहीं थी. संभव है कि एक दस साल के लडके का हाथ पकड़े हुए था या उसके साथ चलते हुए ऐसा फील होता था कि हाथ को थामा हुआ है. वह एक अनवरत घेरती हुई शाम थी. जैसे वक़्त के साथ शाम अपना रंग बदलना भूल गयी थी. सफ़र कुछ क़दमों पर रुका हुआ सा था. यानि कहीं जा नहीं पा रहा था और ऐसा भी नहीं था रुक गया हूँ. मन उदास, डूबता हुआ. कौन देस, कौन मुसाफ़िर... जिसे जानते थे, वो खो गया. अचानक प्यास लग आई. देखा दोनों बच्चे छत पर बिछी हुई चारपाई पर सोये हैं. नीचे बिछी हुई एक सफ़ेद रंग की राली पर मैं उठकर बैठ जाता हूँ. शोर है. रौशनी है. कुत्तों की आवाजें हैं. रेल का इंजन शंटिंग की तैयारी में हल्की विशल देता हुआ घर की ओर बढ़ा आ रहा है. दूसरी रात अपने चश्मे को उतारता हूँ और आँखों के आगे धुंधले वृक्षों की कतार खड़ी है. आँखों को मसलते हुए फ़िर से खोलता हूँ मगर पेड़ों की कतार कायम रही. कनपटी से उतरता हुआ पसीना है. गीला और डरावना. एक बार फ़िर आँखें खोलते हुए अपना चश्मा लगा कर देखता हूँ. चश्मा भी ख़राब. उस पर भी ग

ऐ दोस्त तेरे लिए !

इस संदूक में जाने कितने ख़ुशी और अफ़सोस के मीठे नमकीन अहसास, विरह के आंसू और मिलन के उदात्त क्षणों की रंगीन झालरों के टुकड़े रखे हैं. मखाणे, बताशे और खटमिठियों के स्वाद के बीच सोने की चूड़ियाँ, गुलाबी पन्नों पर लिखे हुए सुनार के हिसाब, लाल रंग के गहने रखने के बक्से, पिताजी की कुछ डायरियां, बीकानेर के सरदार स्टूडियो में खिंची हुई मेरी माँ की श्वेत श्याम तस्वीर रखी है. और इस बड़े संदूक के अन्दर कीमती सामान रखने का एक छोटा संदूक भी है. उम्रदराज़ अगड़म बगड़म के बीच रखे हुए इस छोटे से सदूक को माँ संदूकड़ी कहती है. इस पर किसी सिने तारिका की रंगीन तस्वीर छपी है. सुहाग की साड़ी में माथे पर लाल रंग की बिंदिया सजाये हुए नायिका, रेगिस्तान की दुल्हन से मिलती जुलती दिखती है. माँ जब भी बड़ा संदूक खोलती, एक खुशबू पूरे घर में बिखरने लगती. मैं दौड़ा हुआ उस तक पहुँच जाता. मेरा मन जिज्ञासा और मिठास की लालसा से भरा संदूक के आस पास अटका रहता. जब मखाणे खाने का मजा चला गया तो पहली बार देखा कि उस छोटे से सुन्दर संदूक की तस्वीर के पास से कुछ रंग उतर गया है. मैंने पूछा. माँ इसको ये क्या हुआ ? म

एक उड़ने वाला गाँव

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मिहाई बाबित्स की कथा का एक पात्र भद्र लोगों के शहर में एक संभ्रांत शराबघर में असंभव की हद तक की घृणा और अपने शरणार्थी होने के अकल्पनीय दुःख से भरा हुआ आराम कुर्सी पर बैठा है. वह अभी अभी दोस्त हुए एक आदमी को कहानी सुना रहा है. श्रोता उसको टोकते हुए कुछ पूछता है. कथा के बारे में अचानक अविश्वास से पूछे गए प्रश्न पर कहता है. क्या तुमने कभी हवा में मेज खड़ी कर देने वाला तमाशा देखा है ? प्रश्नकर्ता अपना सर हिला कर हामी भर देता है. "मेज हवा में कैसे खड़ी हो जाती है. ध्यान करने से, एकाग्र मन से. अगर ध्यान करने से एक साधारण सी मेज हवा में खड़ी हो सकती है तो हम एक मकान नहीं उठा सकते ? एक गाँव नहीं उड़ा सकते ? वह गाँव जहाँ हम बड़े हुए, जहाँ आज भी हमारी आत्मा भटक रही है. विश्वास करिए अगर मेरी तरह आधी रात को आप भी भागे होते, अगर आपने बर्फीली हवा के थपेड़े खाते हुए खुले मैदान में पहाड़ों की शरण में रात बितायी होती, आपके ख़यालों में होता आपका घर, गाँव के पेड़, उस गाँव की चीज़ें और आपने सोचा होता कि कल तो आप उन सबके बीच थे, कल तक तो आपने सपने में भी नहीं सोचा था कि आपको उनको छ