तेरी ही तरह सोचता हूँ कि गुमख़याल हूँ.


तेरे होठों के पास की लकीरों में रंग भरता हुआ
मोम कंधों से फिसलता पीठ के कटाव में खो जाता हूँ
फ़िर साँस लेते ही टूट जाता है इच्छाओं के फ़रेब का जादू.

दिन भर सुकून के पानी में प्यास की आग फूंकती
रात भर इश्क़ से भीगे रेशमी फाहे निचोड़ती है तेरी याद...
और ये मौसम बदलता ही नहीं.

तुम दुर्लभ हो, फिनिक्स के आंसुओं की तरह
और मैं अजीर्ण हवस से भरा अशुभ छाया प्रेत.

* * *
जयपुर के चौड़ा रास्ता पर एक दुकान के आखिरी कोने में ऊपर की तरफ रखा हुआ एल्बम दूर से दिख गया था. 'कहना उसे' अब भी कभी-कभी ख़्वाबों में दिखाई देता है. कितने मौसम बीतते गये. शाखों पर नई कोंपलें फूटती रही, फूल खिलते रहे, मगर वो न समझा है न समझेगा. अपने सुनने के लिए उसी एल्बम की ये ग़ज़ल यहाँ टांग रहा हूँ.
फ़रहत शहज़ाद और मेहदी हसन : तन्हा तन्हा मत सोचा कर...

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