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Showing posts from 2011

नी मुईये, मैला मन मेरा...

इस साल की सुराही में एक बूँद बची है. जो पी लिया वह ये था कि प्रायोजित गांधीवाद के एक तालिबानी नेता ने साल भर लड़ाई लड़ी. उसके सामने नूरा कुश्ती के पहलवान भारतीय राजनेता थे. परिणाम ये रहा कि देश की जनता फिर हार गयी. मैं नहीं जानता कि नूरा कुश्ती के जनक कौन है मगर पाकिस्तान में यह बहुत फेमस है. इसमें कुश्ती लड़ने वाले दोनों पहलवान पहले से तय कर लेते हैं कि कोई किसी को हराएगा नहीं. दांव पर दांव चलते रहते हैं. दर्शक परिणाम की उम्मीद में हूट करते रहते हैं. आख़िरकार नाउम्मीद जनता अपने ढूंगों से धूल झाड़ती हुई घर को लौट जाती है. पहलवानों के समर्थक विपक्षी की नीयत में खोट बताते हुए अगली बार की नयी लडाई के वक़्त देख लेने की हुंकार भरते रहते हैं. हमारी निष्ठाएं यथावत रही. भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ कोलाहल रचते रहे, कामचोर बने रहे, सरकारी फाइलें अटकी रही. देश फिर भी आगे बढ़ता रहा. टाइम मैगजीन के लोग रालेगण सिद्धि में इंटरव्यू करने को आये. देश का बड़ा तबका धन्य हो गया. हमारे आदर्श बड़े भ्रामक हैं. टाइम मैगजीन के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ कि मनुष्य का भला करने वाली किसी घटना या व्यक्ति को सालाना

पीले रंग का बैगी कमीज़ : पेट्रिसिया लोरेन्ज

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यह पीले रंग का बैगी शर्ट मुझे उन्नीस सौ चौसठ में मिला था. पूरी आस्तीन वाले इस कमीज़ के चार जेबें थी. कई सालों तक पहने जाने के कारण इसका रंग बहुत कुछ उड़ चुका था किन्तु अब भी ये बहुत अच्छी हालात में था. यह उन दिनों कि बात है जब मैं क्रिसमस अवकाश के दिनों घर पर आई थी. माँ ने कुछ पुराने कपड़ों के ढेर के बारे में बात करते हुए कहा था कि तुम इनको नहीं पहनने वाली हो ना? तब उनके हाथ में एक पीले रंग वाली कमीज़ थी. उन्होंने कहा कि "इसे मैंने उन दिनों पहना था जब तुम और तुम्हारा भाई इस दुनिया में आने वाले थे. यह साल उन्नीस सौ चौवन की बात है. "शुक्रिया माँ मैं इसे अपनी आर्ट क्लास में पहनूगी" कहते हुए, मैंने उस पीले रंग के कमीज़ को अपनी सूटकेस में रख लिया. इसके बाद से यह कमीज़ मेरे वार्डरोब का हिस्सा हो गया. स्नातक उत्तीर्ण करने के बाद जब मैं अपने नए अपार्टमेंट में आई तब मैंने इसे पहना. इसके अगले साल मेरी शादी हो गयी. मैंने इस कमीज़ को बिग बैली दिनों में पहना यानि उन दिनों जब हमारे घर में नया बच्चा आनेवाला था. इस कमीज़ को पहनते हुए मैंने अपनी माँ और परिवार के लोगों को बहुत याद

मेहरबानों के घर के बाहर

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उस रात अमावस्या को गुज़रे हुए कोई दो तीन दिन ही हुए होंगे. सब तरफ अँधेरा ही अँधेरा था. आकाश तारों से भरा था. धरती के ज़रा दायीं तरफ दक्खिन की ओर जाती हुई दिप-दिपाते हुए तारों की एक लम्बी श्रृंखला आसमान के ठीक बीच नज़र आ रही थी. वह पांडवों का रास्ता है. हाँ, वही होगा जिसे वड्सवर्थ ने मिल्की वे कहा है. उसने इस सब को इतने गौर से कभी नहीं देखा था. वह सिर्फ़ सोचता था कि तारे कहां से निकलते हैं और किधर ड़ूब जाते हैं. उसने ये कभी नहीं सोचा कि अँधेरा भी ख़ुद को इतनी सुन्दरता से सजा लेता है. उसने अपना हाथ किरण के कंधे पर रखे हुए कहा. "तारों को देखो किरण.." मुझे जाने क्यों सहसा सुख हुआ कि भले ही सुबह ओपरेशन के बाद वह बचे या नहीं मगर यह उसके जीवन के अनन्यतम श्रेष्ठ क्षणों में से एक क्षण है. मैं राजशेखर नीरमान्वी की कहानी पढ़ रहा था. कई दिनों से मैं रास्ता भटक गया था. मेरे जीवन जीने के औजार खो गए थे. इस जीवन में जिधर भी देखो आस पास कई सारी शक्लें जन्म से लेकर मृत्यु तक मंडराती रहती है. उनमे से कई हमारे जन्म से पूर्व प्रतीक्षा में होते हैं और कई हमारी मृत्यु के पश्चात् भी हमारी स्मृतियों मे

सोच के उनको याद आता है...

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अक्सर एक निर्वात में खो जाता हूँ. वहाँ असंख्य कथाओं का निरपेक्ष संचरण होता है. उसमें से एक सर्वव्याप्त कथा है कि जिनका मुश्किल दिनों में साथ दिया हों वे अक्सर ज़िन्दगी आसान होने पर एक काली सरल रेखा खींच, मुंह मोड़ कर चल देते हैं. इस सरल रेखा के बाद, उससे जुड़ी जीवन की जटिलतायें समाप्त हो जानी चाहिए किन्तु मनुष्य अजब प्राणी है कि दुर्भिक्ष में पेड़ से चिपके हुए कंकाल की तरह स्मृतियों को सीने से लगाये रखता हैं. जोर्ज़ बालिन्त की एक खूबसूरत रूपक कथा है. 'वह आदमी रो क्यों रहा था." रंगमंच या किसी उपन्यास में रुलाई उबाऊ और भावुकता भरा प्रदर्शन लगती है परन्तु सचमुच की ज़िन्दगी में रोना एक अलग ही चीज़ है. क्योंकि ज़िन्दगी में रोना वातावरण पैदा करने वाला भौंडा प्रदर्शन नहीं होता. जैसे सचमुच के जीवन में डूबते हुए सूरज की ललाई किसी पोस्टकार्ड की याद नहीं दिलाती बल्कि बेहद आकर्षक और रहस्यमयी लगती है. ठीक इसी तरह सचमुच के जीवन में शिशु का रिरियाना मोहक नहीं लगता बल्कि ऐसा लगता है मानो वह बहुत पुरातन कोई अदम्य आदिम व्याकुलता व्यक्त कर रहा हो. इस कथा के नायक का नाम लीफे था. वह राजमार्ग पर ब

किस्से ज़ेहन में

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इस स्कोटिश कहावत को भले ही गंभीरता से न लिया जाये मगर बात पते की है कि "हम जब तक ज़िन्दा हैं हमें खुश रहना चाहिए क्योंकि बाद में हम लम्बे समय के लिए मरने वाले हैं." ये मेरे अनुवाद का दोष हो सकता है या फिर स्कोट्लैंड के लोग भी मानते होंगे कि जीने का चांस फिर मिलेगा. यह भी एक तरह से ख़ुशी भरी बात है. इस तरह जीवन को बार बार पाने की चाह तो हम सब में है किन्तु इसी एक जीवन को प्रसन्नता से बिताने की कोई इच्छा नहीं है. प्रसन्नता के बारे में अपनी इस बात को आगे बढ़ाने के लिए मैं रुढ़िवादी, अज्ञानी और आदिम दम्भी लोगों के समूह के लिए उचित 'एक शब्द' लिखना चाह रहा था और मेरे दिमाग में आया, तालिबानी. इसके बाद मुझे गहरा अफ़सोस हुआ कि मैंने अपने भाषाई ज्ञान पर वातावरण में उड़ रही गर्द को जम जाने दिया है. तालिबान होने का अर्थ है विद्यार्थी होना. इस शब्द का उपयोग निरंतर अमेरिका के पाले हुए उस समूह के लिए हो रहा है, जिसे सोवियत रूस के विरुद्ध खड़ा किया गया था. अब इस शब्द का सहज लिया जाने वाला आशय कठमुल्लों का वह समूह है, जो कबीलाई दुनिया के ख़्वाब देखता है और कोड़े और बंदूक का राज कायम कर

अनुपस्थिति

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आज मैं तुमको जोर्ज़ बालिन्त की एक कहानी सुनाना चाहता था किन्तु जाने क्यों अब मेरा मन नहीं है. मैंने उस कहानी के बारे में अपनी लिखी हुई बीसियों पंक्तियों को ड्राफ्ट में छोड़ दिया है. मौसम में कोई रंगत नहीं है कि कुदरत के फ्रीज़र का दरवाज़ा अभी खुला नहीं है. मेरी अलमारी में अच्छी विस्की की बची हुई एक बोतल बहुत तनहा दीख रही है. नहीं मालूम कि हिना रब्बानी खान इस वक़्त किस देश के दौरे पर है और अमेरिकी सुंदरी कार्ला हिल्स ने उन्नीस सौ बानवे में जो कहा था कि हम दुनिया में शांति लायेंगे और सबको रहने के लिए घर देंगे, उसका क्या हुआ? फिर भी दिन ये ख़ास है इसलिए इस वक़्त एक बेवज़ह की बात सुनो. दीवार की ट्यूबलाईट बदल गयी है सफ़ेद सरल लता में और संवरने की मेज़ का आइना हो गया है एक चमकीला पन्ना. मोरपंखों से बनी हवा खाने की एक पंखी थी वो भी खो गई, पिछले गरम दिनों की एक रात. मेरे सामने रसोई का दरवाज़ा खुला पड़ा है मगर जो चाकू है वह सिर्फ़ छील सकता हैं कच्ची लौकी. और भी नज़र जो आता है सामान, सब नाकामयाब है. कि मेरी दो आँखों से सीने तक के रास्ते में आंसुओं से भरा एक फुग्गा टकराता हुआ चलता

चैन भी है कुछ खोया खोया...

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एकांत के अरण्य का विस्तार क्षितिज तक फैला दीखता है किन्तु इसकी भीतरी बुनावट असंख्य, अदृश्य जटिलताओं को समेटे हुए है. एक विचार जब कभी इस जाल के तंतु को छू जाये तो भीतर रह रही, अवसाद नामक मकड़ी तुरंत सक्रिय हो जाती है. मैं इसीलिए निश्चेष्ट और निरुद्धेश्य समय को बीतते हुए देखता हूँ. उसने कई बार कहा कि आप लिखो. मुझे इसका फ़ौरी जवाब यही सूझता कि हाँ मैं लिखूंगा. लेकिन आवाज़ के बंद होते ही उसी समतल वीराने में पहुँच जाता हूँ. जहाँ जीवन, भुरभुरे ख़यालों की ज़मीन है. दरकती, बिखरती हुई... संभव है कि विलक्षण व्यक्तियों का लिखा हुआ कई सौ सालों तक पढ़ा जाता रहेगा और पाठक के मन में उस लिखने वाले की स्मृति बनी रहेगी... और उसके बाद? मैं यहीं आकर रुक जाता हूँ. पॉल वायला के जीवन की तरह मैं कब तक स्मृतियों के दस्तावेज़ों में अपना नाम सुरक्षित रख पाऊंगा. मेरे इस नाम से कब तक कोई सर्द आह उठेगी या नर्म नाजुक बदन अपने आगोश में समेटने को बेक़रार होता रहेगा. मैं सोचता हूँ कि कभी उससे कह दूंगा कि मेरा जीवन एक सुलगती हुई, धुंए से भरी लकड़ी है. जिसके दूसरे सिरे पर एक आदिम प्यास बैठी है. वक़्त क

कीकर के पेड़ों पर सफ़ेद कांटे

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उस मोड़ पर एक आदमी नई चिलम छांट रहा था. मैंने पीछे मुड़ कर देखा. रास्ता सूना था फिर गाड़ियों की एक कतार मेरी बेखयाली को चीरती हुई गुजरने लगी. मुझे अचरज हुआ कि अभी थोड़ी ही देर पहले मैं कार में बैठा हुआ सिगरेट के बारे में सोच रहा था और अब इस आदमी को देख रहा हूँ. मैंने कई सालों से सिगरेट नहीं पी है. अब भी कोई जरुरत नहीं है. फिर ये क्या खाली हुआ है जिसे धुंए से भरने का मन हो आया है. मैंने उस आदमी के बारे में सोचा कि जब वह चिलम पिएगा तो हर बार उसे और अधिक धुंआ चाहिए होगा. एक दिन वह थक कर लुढ़क जायेगा. उसे समझ नहीं आएगा कि जो चिलम का पावर हाउस था, वो क्या हुआ... मुझे भी समझ नहीं आ रहा. अचानक चाहा, यही बैठ जाऊं कि मैं बहुत चिलम पी चुका हूँ. फिर देखा दूर तक सड़क खाली थी. नीली जींस और सफ़ेद कुरता पहने हुए खुद को देखा तो उस लड़के की याद आई जो एक शाम चूरू की वन विहार कॉलोनी के मोड़ पर लगे माइलस्टोन पर देर तक बेवजह बैठा रहा. कि उस दिन कोई नहीं था. सब रास्ते शोक मग्न थे. सड़क के किनारे खड़े कीकर के पेड़ों पर सफ़ेद कांटे चमक रहे थे. बुझती हुई शाम में दरख्तों की लंबी छाया घरों की दीवारों को चूम रह

लड़की, जिसकी मैंने हत्या की

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उसका नाम चेन्नमा था. उसके माता पिता ने उसे बसवी बना कर छोड़ दिया था. बसवी माने भगवान के नाम पर पुरुषों की सेवा के लिए जीवन का समर्पण. चेनम्मा के माता पिता जमींदार ब्राह्मण थे. सात-आठ साल पहले वह बीमार हो गयी तो उन्होंने अपने कुल देवता से आग्रह किया था कि वे इस अबोध बालिका को भला चंगा कर दें तो वे उसे बसवी बना देंगे. ऐसा ही हुआ. फिर उस कुलीन ब्राह्मण के घर जब कोई मेहमान आता तो उसकी सेवा करना बसवी का सौभाग्य होता. इससे ईश्वर प्रसन्न हो जाते थे. नागवल्ली गाँव के ब्राह्मण करियप्पा के घर जब मैं पहुंचा तब मैंने उसे पहली बार देखा था. उस लड़की के बारे में बहुत संक्षेप में बताता हूँ कि उसका रंग गेंहुआ था. मुख देखने में सुंदर. भरी जवानी में गदराया हुआ शरीर. जब भी मैं देखता उसके होठों पर एक स्वाभाविक मुस्कान पाता. आँखों में बचपन की अल्हड़ता की चमक बाकी थी. दिन भर घूम फिर लेने के बाद रात के भोजन के पश्चात वह कमरे में आई और उसने मद्धम रौशनी वाली लालटेन की लौ को और कम कर दिया. वह बिस्तर पर मेरे पास आकार बैठ गयी. मैंने थूक निगलते हुए कहा ये गलत है. वह निर्दोष और नजदीक चली आई. फिर उसी न

जबकि ऐसी कोई वजह नहीं...

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इन सुस्ताई हुई रातों की भोर के पहले पहर में आने वाले ख्वाबों में बच्चों की सेहत और एक उपन्यास जितना लम्बा अफ़साना लिखने के दृश्य होने चाहिए थे. लेकिन आज सुबह बदन में ठण्ड की ज़रा झुरझुरी हुई तब देखा कि एक मुसाफ़िर बाहर वाले कमरे में अपना सामान खोल रहा था. रात घिर आई थी. मुझे किसी सफ़र पर जाना था और चीज़ें सब बिगड़ी हुई थी. ग्यारह दस पर छूटने वाली गाड़ी का कोई मुसाफ़िर मुझे फोन पर पूछता है कि क्या सामने वाली बर्थ आपकी है? सपने की नासमझी पर अफ़सोस हुआ कि किसी मुसाफ़िर को मेरा फोन नम्बर कैसे मालूम हो सकता है. एक पेढी पर से फांदता हुआ अपने थैले के पास आ जाता हूँ. बोध होता है कि मेरे बैग में बेकार पुराने कपड़े भरे हैं. मैं उनको बाहर कर देने के लिए उसको देखता हूँ. लेकिन उसमें पिछली सर्दियों में लिए गये दो नए स्वेटर खाकी रंग के कागज के लिफाफे में रखे हैं. ये जरुर जया ने किया होगा, ऐसा सोचते हुए भाई की आवाज़ सुनता हूँ. वह मुझे लगातार होती जा रही देरी में भी ट्रेन तक पहुंचा देने के लिए चिंतित है. मेरा टिकट खो गया है. वह सब दराजों और बैग के खानों में तलाश लिए जाने के बावजूद नहीं मि

दूर से लगता हूँ सही सलामत

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मैं इससे दूर भागता रहता हूँ कि ज़िन्दगी के बारे में सवाल पूछना कुफ्र है. ये क्या सोचते हो? ऐसे तो फिर जीना कितना मुश्किल हो जायेगा? इस सवाल को रहने दो, जब तक है, अपने काम में लगे रहो... इन गैरवाजिब बातों में सुख है. ज़िन्दगी से प्रेम करने लगो तो डर बढ़ता जाता है. उसी के खो जाने का डर, जिससे प्रेम करने लगे हों. अचानक ऊपरी माले में एक सवाल अटक जाता है कि न रहे तो? साँस घुटने लगती है. बिस्तर पर झटके से उठ बैठता हूँ. सोचता हूँ बच्चों को बाँहों में भर लूं... पत्नी का हाथ थाम लूं. सीधा खड़ा हो जाऊं. अपने सर को पानी झटकते हुए कुत्ते की तरह हिलाऊँ. अपनी सांसों पर ध्यान दूँ कहीं कोई साँस छूट न जाये. ख़ुद से कहता हूँ कि ये दीवानगी है. सब तो खैरियत से हैं. अभी चीज़ों ने ख़ुद को थाम रखा है. थोड़ी देर रुको सब सामान्य होने लगेगा. वह थोड़ी देर नहीं आती. वह समय मीलों दूर है. दोनों हथेलियों को बिस्तर पर टिकाये हुए मुंह खोल कर साँस लेता हूँ. कुछ लम्बी सांसें... ऐसे अनगिनत दिनों में भय निरंतर पीछा करता रहा. एक उदास दोपहर में दोस्त ने पूछा फिर कैसे छुटकारा होगा ? वह सेडेटिव, जो आपके

होश कहां होता है, इज़्तराब में...

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मैंने चाहा कि लेवेंडर की पत्तियां अपनी हथेली में रख कर मसल दूँ. मैं झुक नहीं पाया कि मेरे कमीज़ और हथेलियाँ में कोई खुशबू भरी है. फुरसत के चार कदम चलते हुए जब हसरतों के कुरते की सलवटों में छिपे हुए बेक़रार रातों के किस्सों को पढना चाहें तो आधा कदम पीछे रहना लाजिमी है. ज़रा आहिस्ता चलता हूँ कि अपने कौतुहल में लिख सकूँ, ज़िन्दगी की लहर का किनारा क्या उलीचता और सींचता रहता है. इस लम्हे की खुशबू के उड़ जाने के डर के बीच ख़याल आता है कि क्या मेरा ये लम्हा किनारे की मिट्टी पर बिखरे हुए सीपियों के खोल जैसी किसी स्मृति में ढल कर रह जायेगा. मैंने फूलों और चीज़ों को उदासीन निगाहों से देखा और फ़िर सोचा कि रास्तों के फ़ासलों की उम्र क्या हुआ करती है? खुशबू की ज़द क्या होती है? इस वक़्त जो हासिल है, उसका अंज़ाम क्या है? मुझे याद आया कि ईश्वर बहुत दयालु है. वह सबके लिए कम से कम दो तीन विकल्प छोड़ता है. उनमें से आप चुन सकते हैं. मेरे पास भी दो विकल्प थे. पहला था कि मैं वहाँ रुक नहीं सकता और दूसरा कि मैं वहाँ से चला जाऊं. एक आम आदमी की तरह मैंने चाहा कि शिकायत करूँ लेकिन फ़िर उसके

चाँदनी रात में

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ढ़लान शुरू होने की जगह पर बने घर का हल्की लकड़ी से बना दरवाज़ा टूटा हुआ था. उसकी ढलुवाँ छत पर रौशनी बिखरी थी कि ये डूबते चाँद की रात थी. वह दरवाज़ा थोडा खुला, थोडा बंद ज़मीन और चौखट के बीच अटका हुआ था. जैसे कोई उदासीन प्रेम एक तयशुदा इंतज़ार में दीवार का सहारा लेकर बैठा हो. घर की दर ओ दीवार को बदलती हुई रुतें चूमती निकलती है. बरबाद हुए कोनों को झाड़ने पौंछने और मटमैली दीवारों को सफ़ेद चूने से रंगने के काम वाले इन्ही दिनों घाटी में मौसम की पहली बर्फ गिरा करती है. रेगिस्तान की रातें भी ठण्ड से भर जाती है और पानी से भरी हवा वाली सुबहें खिला करती है. दो रात के बाद इस बार रुत कायम न रह सकी. चाँद पूरब में हाथ भर ऊंचा खिला हुआ है. मैं अपनी छत के ठीक बीच में चारपाई लगा कर उस घर को याद करता हूँ, जो ढ़लान शुरू होने की जगह पर बना है. उस घर में कौन रहता था? नहीं मालूम कौन... * * * नीचे लॉन में खिले हुए पौधों पर चांदनी गिरती है तब उनको देखना अच्छा लगता है. किन्तु पड़ोस की छतों पर लोग जाग रहे होते हैं. उम्मीदें और अनसुलझे सवाल उनकी नींदें चुराए रखते हैं. वे क्या सोचें कि मैं क

जबकि वो उस शहर में नहीं रहती...

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मैं मर गई हूँ. तुम भी अपने बिस्तर में मर जाओ. उसने पहली बार देखा कि मरने के बाद चाँद तारों को देखना कितना अच्छा लगता है. नींद की प्रतीक्षा नहीं रहती. हवा और पानी की जरुरत ख़त्म हो जाती है. ब्रेड के बासी हो जाने या सर्द दिनों में दही के सही ढंग से जमने की चिंता से भी मुक्त हो जाते हैं. सबसे अलग बात होती है कि मरने के बाद कोई आपका इंतजार भी नहीं करता. वो इंतजार, जिससे उकता कर हर रात हम अपने बिस्तर में मर जाते हैं. ये सोचते हुए कि चाँद कायम रहा और सूरज रोज़ की तरह उगा तो सुबह देखेंगे कि हवा में ठंड कितनी बढ़ गयी है. इन दिनों मैं यहाँ नहीं था, यह सच है. मैं अजनबी भूगोल की सैर पर था. अपनी समझ खो चुके एक भटके हुए यात्री की तरह मेरी जिज्ञासाएं चरम पर थी. मेरे लिए वह नयी जगह थी. वहाँ पर बहुत सामान्य और उपेक्षा योग्य चीज़ें भी मुझे डरा रही थी. मैं एक पहली कक्षा का बच्चा था, जो दर्शनशास्त्र की किताब पर बैठा हुआ था. उस शहर में मेरा कोई नहीं रहता. उत्तर-पूर्व के ऊंचे पहाड़ों का रास्ता उसी जगह से जाता है. हाँ, बीस एक साल पहले मेरी एक बहन जोरहट में रहा करती थी. उसके फोन आया करते

आखिर थक कर सो जाओगे

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अँधेरे में दीवार का रंग साफ़ नहीं दिख रहा था. पच्चीस कदम दूर, उस दीवार की ईंटें बायीं तरफ से गिरी हुई थी. फ्रिल वाली स्कर्ट पहनी हुई नवयौवना उस लड़के तक जाना चाहती थी. लड़के का मुंह पूरब दिशा में था और वह उसके पीछे की तरफ थी. भौतिक चीज़ों से जुडी अनुभूतियों के साथ मेरा दिशा बोध जटिलता से गुंथा हुआ है. चीज़ें एक खास शक्ल में सामने आती है. जब भी मैं किसी दीवार पर बैठे हुए लड़के के बारे में सोचता हूँ तो तय है कि लड़का जिस तरफ देख रहा है, उधर पश्चिम है. लड़के के पैरों के नीचे की ओर ज़मीन बहुत दूर है. वह लड़का एक उदासी का चित्र है. इसलिए डूबते हुए सूरज की ओर उसका मुंह हुआ करता है. जिस तरफ वह देख रहा है उधर कोई रास्ता नहीं होता. घात लगाये बैठा समंदर या फ़िर पहाड़ की गहरी खाई लड़के के इंतजार में होती है. लड़के के थक कर गिर जाने के इंतजार में... मैं उसे नवयौवना ही समझ रहा हूँ किन्तु लिखने में लड़की एक आसान शब्द है. दरवाज़े के साथ एक जालीदार पतला पल्ला है. इसके आगे कुर्सी रखी है और फ़िर खुली जगह में रेत है. इस पर कुछ पौधे उगे हुए हैं. इन सबके बीच वह डिनर टेबल कहां से आई, मैं स

ये मग़रिब से आती हवा न थी...

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अँधेरे में रहस्य का आलाप है. इसमें सिहर जाने का सुख है. वहां एक कुर्सी रखी है. बादलों के बरस जाने के बाद वह कुर्सी खुली जगह पर चली आया करती है. सर्द दिनों में धूप का पीछा करती रहती है. गरम दिनों की रुत में सीढ़ियों के नीचे के कोने में दुबकी हुई थोड़ी कम गरम हवा का इंतजार करती है. उस पर एक कुशन रखा है. कुशन पर रंगीन धागों से ढोला-मारू की तस्वीर उकेरी हुई है. दौड़ते हुए ऊंट की गरदन टेढ़ी है यानि वह संवाद कर रहा है. कहता है. "मुहब्बत की कोई काट नहीं है, वह ख़ुद एक बिना दांतों वाली आरी है." मैं अभी भी कमरे में लेटा हुआ हूँ. रात के बारह बजे हैं. सोच रहा हूँ कि इस कुशन पर रेत के धोरों की तस्वीर धागों से बन जाती तो और सुन्दर दिखता. दौड़ते हुए ऊंट की पीठ पर सवार ढोला अपनी प्रेयसी मरवण से मुखातिब है. जिस वक़्त अपने कंधे पर प्रेयसी का हाथ नहीं पाता है, घबरा जाता है. प्रेम के लिए भागते जाने के इस अनूठे आयोजन का विस्तार असीमित है. अबूझ धोरों पर रेत की लहरों के बीच सुकून और बेचैनी की एक बारीक रेखा साथ रहती है कि इस रेगिस्तान में पकड़ा जाना मुश्किल है और अधिक मुश्किल है, बच

रात की स्याही से भीगी हवा

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यह कुछ ऐसा ही है जैसे ये सोचना कि दीवार के उस पार क्या है? मैं अपने बिस्तर पर कभी औंधा लेटा हुआ आँगन को देखता या पीठ के बल सोते हुए छत को ताकता सोचता हूँ कि बाहर की हवा में ठण्ड है. अचानक कोई झोंका आता है. हवा इस तरह से बदन को छूती है जैसे कोई आहिस्ता आहिस्ता दस्तक दे रहा हो. वह असंगत लय है. अभी एक बार छुआ थोड़ा रुक कर तेजी से दो तीन बार फ़िर से छू लिया. मैं एक छोटे से इंतजार के बाद उसे भूलने को ही होता हूँ उसी वक़्त हवा फ़िर से दस्तक देती है. जैसे किसी ने अपने ठन्डे हाथ धीरे से गाल पर रखे और वापस खींच लिए. ये कौन है? जो मेरे मन को दरवाज़े के बाहर खींच ले जाता है. वहां अँधेरा है. मैं उस जगह को रोज़ देखता हूँ, वहाँ कोई नहीं रहता. उस खुली जगह पर कोई नहीं है तो फिर वहां पर मेरा मन क्यों चला गया है. सूरज की रौशनी के बुझते ही शोर जब अपनी दुम को अपने ही मुहं में दबा कर सो जाता है तब क्या कोई दबे पांव वहाँ आकर रहने लगता है? संभव है कि चीजें जादुई हैं और वे हर घड़ी अपना रंग बदलती रहती है. हो सकता है क्योंकि हमारा रंग भी हर पल परिवर्तित होता रहता है. जैसे मन का रंग, सामर्

फ़िर भी हेप्पी बर्थडे...

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ख्वाहिशों की तितलियाँ बेक़रारी की आग को चूम कर उड़ जाती हैं. जाने किस नगर, किस देश को. झपकती हुई पलकों से देखे किसी अचरज की टिमटिमाती हुई याद रह जाती है. उन तितलियों के पंखों के कुछ रंग आस पास छूट जाया करते हैं. ऐसे में कुछ शामें बेसबब स्टेडियम की पेवेलियन में बैठे हुए, कई सुबहें सूजेश्वर के पहाड़ी रास्ते वाले शिव मंदिर की सीढ़ियों पर, कई दोपहरें बेखयाल नीम के पेड़ों की छाँव में बीतती रही. वहां हसरतों के घोंसले न थे. बस ज़रा खुला खुला सा लगता था. उन्हीं जगहों पर मैं महसूस करता था कि आवाज़ की सुंदर तितलियाँ, खुशबुओं को छूकर आई है और लम्हों की उतरन को मेरी कलाई पर रखती हुई मुस्कुराती है. वहीं बैठा हुआ जाने किस बात पर... अचानक किसी शोरगुल भरी कक्षा में पहुँच जाता हूँ. जहां विज्ञान के माड़साब किसी दर्शनशास्त्र के प्रोफ़ेसर में तब्दील हो कर बड़ी गहरी उदासी से बताते कि तितलियों की उम्र चौबीस घंटे हुआ करती है. वे गंभीर होकर खो जाते. जीवन के बारे में कोई ख़याल उनके दिमाग में अटक जाता था. इससे बाहर आने के लिए वे एक झटका सा देते हुए उस ख़याल को नीचे गिरा कर आगे पढ़ाने लग जाते

अग्नि के आचमन से

मैं ये जाने कब से सोच रहा हूँ कि तुमसे प्रेम करते हुए, मुझे देवीय कोप से भयभीत मनुष्यों की गरज नहीं है. मेरे पिता एक ऊँचे कद वाले और चौड़े हौसले वाले इंसान थे. उस भद्र पुरुष ने एक रात मुझे कहा था कि मैं अग्नि के आचमन और जल के अभिषेक से जन्मा हूँ. उस समय उनकी पेशानी पर बल थे. उनके तीखे नाक पर चमकता हुआ कोई उजाला छिटक रहा था. छोटी सी आँखों की लम्बी कोर के किनारे प्रेम से भीगे हुए थे. ऐसा देखते हुए मैंने पाया कि मैं एक नन्हा बच्चा हूँ. जो किसी की गोद में लेटा हुआ आँचल की ओट से ये सब देख रहा है. कल मैंने एक ख़याल बुना. इसे जागती आँख का सपना कहा जा सकता है. सपना इसलिए कि इसमें सोचा गया सब कुछ अविश्वसनीय है. मैं देखता हूँ कि राजपथों जैसी चौड़ी सड़क के किनारे एक कार में तुम बैठी हो. उस कार के बंद दरवाजों पर, शीशों पर, छत पर बेशुमार बारिश गिर रही है. बरसात के शोर में कई सारी आवाज़ें खो कर मौन में ढल गयी है. एक ऐसा मौन, जिसमें शोर ही मुखर है मगर सुनाई कुछ नहीं देता. बारिश की फुहारों और काली ऊदी घटाओं के बीच कोई उम्मीद नहीं झांकती. एक अरूप दर्द है. जिसका कोई ओर छोर नहीं, जिसकी

किसी ज़ीने पर पुराने दिन बैठे होते...

अच्छा रहता कि बारिश होती और एक दूजे का हाथ थामें सड़क के किनारे कार में बैठे रहते. इस तरह बहुत सा वक़्त साथ में बिताया जा सकता था. हम जरुर एक दूसरे को देख कर हतप्रभ चुप हो जाते. फ़िर थोड़ी देर बाद कार के पायदानों के नीचे से सरक कर कई बातें हमारे बीच आ बैठती. इस तरह मिलने के अचरज को हम गरम कॉफ़ी की तरह सिप करते जाते और इस स्वाद को दुनिया का लाजवाब स्वाद बताते. विलासी चौराहों की ओर देखते हुए या फ़िर रिक्शा धोते हुए आदमी के बारे में कुछ भी सोचे बिना, इस पर भी बात की जा सकती थी कि उन शहरों को लोग क्यों याद नहीं रख पाते जहाँ उनका कोई महबूब न रहता हो. बातचीत का विषय ये भी हो सकता था कि किस तरह कई बार वे दीवारें भी स्मृतियों में जगह बनाये रहती है. जिनके सहारे चिपक कर एक बार चूमा गया हो. या पूछ ही बैठते कि क्या दीवारें तुम्हारी ओर धक्का देने का गुपचुप हुनर भी जानती हैं? धूल हवा के पंखों पर सवार रहती और सूरज फूंक मार कर गोल-गोल धूल का खेल खेला करता था. अक्सर तनहा कमरे में दोपहर के वक़्त प्यार करने के ख़्वाब देखने में इतना समय जाया होता रहता था कि ख़ुद पर चिढ होने लगती थी. आले में

क़ैदख़ाने में सुंदर पीठ वाली लड़की

मैदान में हरे रंग के पत्ते एक दूसरे की बाहें थामें हुए ऊँचे झांक रहे थे, यहीं कुछ महीने पहले धूल उड़ा करती थी. छत डालने के काम आने वाले सीमेंट के चद्दरों से दुपहिया वाहनों के लिए शेड बना हुआ है. यहाँ बैठा हुआ, सेटेलाईट डाटा रिसीविंग डिश के पार नीले आसमान में तैरते हुए बादलों के टुकड़ों को देखता हूँ. सप्ताह भर से लगातार बारिश हो रही है. अक्सर फाल्ट होने से पावर कट हो जाया करता है फिर स्टूडियोज़ के बंद कमरों में सीलन और ठहरी हुई हवा भारी होने लगती. नाउम्मीद बैठे हुए अचानक तेज बारिश होने लगी. शेड के तीन तरफ पानी, फुहारें, एक लयबद्ध शोर, किनारे पर अटका एक भीगा हुआ पंख. दुनिया सिमट गयी है. यहीं बैठ कर इंतज़ार करो. सहसा आभास हुआ कि बारिश अपने साथ बहा ले जा रही है. मन की सतह का रंग बदल रहा है. अभी एक आवाज़ सुन रहा था. ताज़ा सीलन से भरी दोशीज़ा आवाज़. टूटती, बेदार और हिचकियों से भरी हुई... बारिश भी ऐसे ही गिरती है. * * * परसों रात उस बंदीगृह के फर्श का बनना अभी बाकी था. सीमेंट मिली बजरी की रेतीली सूखी परत पर कई जगह बिछाने के लिए बारदाने या फ़िर फटी हुई कम्बलें रखी थी. उसकी पीठ

मरक़दों पे तो चिरागां है शब-ओ-रोज़

मैं एक अजनबी की तरह पार्क में दाखिल हुआ. वहां कुछ जगहों पर दूब नहीं थी और खास तौर से जिस जगह पर कसरत करने के लिए दो 'बार' लगी थी वहां बिलकुल भी नहीं थी. उस नौजवान आदमी ने बार पर टिकी हुई हथेलियों पर अपने शरीर को सीधा उठाये हुए मेरी तरफ देखा. जबकि उसकी पीठ मेरी ओर थी. उस आदमी की उम्र कोई पच्चीस साल रही होंगी. इसके बाद मैंने एक नन्हे बच्चे को देखा जो ज़मीन और बार के बीच जाने किस चीज़ पर बैठा था. वह बच्चा चूँकि बैठा हुआ था इसलिए उसके कद और उम्र के बारे में कुछ कहना मुश्किल होगा किन्तु वह चार साल की उम्र से छोटा ही रहा होगा. उसके पास एक लड़की खड़ी थी. इन तीनों को एक साथ देखने से लगा कि वह निश्चित ही एक परिवार है. अर्थात पति, पत्नी और उनका बेटा. सूखी हुई घास की तरफ बढ़ते समय मेरी चाल निरुद्देश्य सी दिखती होगी लेकिन जल्द ही उन सब के पास पहुँच गया. जैसे अभी अभी बिना मकसद के चल रहा था और अभी अभी लगता है कि किसी ख़ास काम के सिलसिले में इन्हीं से मिलने आया हूँ. वह लड़की निरंतर मेरी ओर देख रही है, ऐसा मुझे लगता है. इसलिए कि मैं निरंतर उस नौजवान को देख रहा हूँ. जो वर्जिश में लगा है.

आज की एक रात रुक जाओ...

ढोला तमीणे देस में म्हें दीठा तीन रतन, एक ढोलो दूजी मरवण तीजो कसूम्बल रंग ! ओ माणीगर रेवो अजूणी रात, पूछों रे मनडे़ री बात माणीगर रेवो अजूणी रात थांरे कारणिये ढो़ला जीमणियो जिमाऊं, जीमणिये रे मिस आवो रे बादिला माणीगर रेवो अजूणी रात, पूछों रे मनडे़ री बात थांरे कारणिये केलूडी़ रोपाओं, दांतणिये रे मिस आवो रे बादीला माणीगर रेवो अजूणी रात, पूछों रे मनडे़ री बात... ओ प्रिये तेरे देश में मैंने तीन रत्न देखे हैं, एक प्रिय दूसरी प्रियतमा और तीसरा कसूम्बल रंग ओ सौदागर आज की एक रात रुक जाओ तो मन की बात पूछूं आपके लिए एक भोज का आयोजन करूँ, भोजन के बहाने से आ जाओ ओ हठीले ओ सौदागर आज की एक रात रुक जाओ... आपके लिए केलू का पौधा लगवा दूँ, दातुन के बहाने से आ जाओ ओ हठीले ओ सौदागर आज की एक रात रुक जाओ... रेगिस्तान में रात जब लाल रंग में घिरने लगती है तो उसे कसूम्बल रंग कहते हैं. मैं ऐसे ही रंग की रातों को ओढ़ कर सो रहा हूँ. विरह की उदासी से घिरी बैठी किस प्रेयसी ने ऐसे लोक गीतों को जन्म दिया होगा कि ज़िन्दगी बस उसके साथ की एक रात का ख़्वाब बन कर रह गयी. गफूर और

कोई भुला भी न सके...

भीगी हुई आँखों से देखते हुए अपने पांवों को समेटने लगी. उसने ख़ुद को इस कदर सौंप रखा था कि सिमट जाना असंभव था. वह रंग थी और बिखर गयी थी . ख़यालों की नामुराद दुनिया आँखों के सामने उग आई. अब वह उन धुंए से लिपटी रहने वाली अँगुलियों को छू कर देख सकती थी. कितने ही बरस पहले जिन खुशबुओं को हवा अपने साथ उड़ा ले गयी. वे अचानक काले घने बालों से उतर कर लम्बे लाल रंग के सोफे पर बैठी थी. एक शाम बुझते हुए साये दीवार पर छूट गए. सालों तक दीवार का वह हिस्सा उतना ही ताज़ा बना रहा. वह आते जाते अंगुली के नर्म नाजुक पोरों से दीवार की उसी जगह पर एक अदृश्य रेखा खींचती हुई चलती थी. उसी दीवार से छन कर बेग़म अख्तर की आवाज़ आती थी. न जाने उसका मुहब्बत में हश्र क्या होगा जो दिल में आग लगा ले मगर बुझा न सके... कुछ नहीं हुआ साल गिरते गए और जे एल ऍन मार्ग पर मौसमों के साथ नए फूल खिलते गए. सफ़ेद संगमरमर के लम्बे चौड़े फर्श पर प्रार्थनाओं के बचे हुए शब्द बिखर गए. उसके बालों में हाथ फेरते हुए लड़की ने कहा. इधर आओ मेरे पास, यहाँ मेरी धड़कनों के करीब. तुम यहाँ रहते हो. गिरहों से उठती खुशबू से पर

ऐ ज़िन्दगी गले लगा ले

सिंधी केम्प बस अड्डे की सुबह बादलों की ढाल से ढकी हुई हल्की उमस बुन रही थी. मैन गेट के आगे सायकल रिक्शे कतार में खड़े थे. उनके मालिक कम पानी वाले बूढ़े दरख्तों जैसे थे. जिन्होंने इस शहर को पाँव पसारते हुए देखा, जिन्होंने मजदूरी के लिए जयपुर की बूढ़ी गलियों से आशिकी कर रखी थी. उनके काले धूप जले चेहरों पर सफ़ेद तिनके उगे हुए थे. एक रिक्शे की तिरपाल से बनी छत पर प्लास्टिक के दो पुराने चप्पल रखे थे. उसमें सोये हुए आदमी को देखते हुए ख़याल आया कि वह बहुत निर्जीव किन्तु रिक्शे सा ही वाचाल हो सकता है. इधर सड़क पर चलने को तैयार खड़े रिक्शे के पास चालीस पार उम्र के दो आदमी खड़े थे. दोनों में एक समानता थी कि उनकी हड्डियों पर मांस नहीं था. एक का चेहरा लम्बा और सीधा था. दूसरे का गोल और पीठ के साथ नीचे की और झुका हुआ. लम्बे वाले के चेहरे पर कुछ शिकायतें रखी थी. वे लहरों की तरह होठों के पास से उठती और कान की तलहटी तक जाकर समाप्त हो जाती. उसके होठों के ऊपर चिपकाई हुई नाक के ऊपर दो आँखें रखी थी. उन्होंने दुनिया की चकाचौंध से डर कर गहरे खड्डों में छुप जाने की आदत बना रखी थी. मैंने सोचा कि इस आदमी को अगर अप

ये सूरत बदलनी चाहिए...

अपने सब्जी वाले दोस्त की दुकान के आगे खड़ा हुआ नए पुल के लिए चल रहा निर्माण कार्य देखता हूँ. चार मशीनें हैं जो एक बड़े कटर को उठा कर ज़मीन पर मारती है. कल कारखानों से आने वाले लयबद्ध शोर का प्रतिरूप कानों से टकराता है. भाई अगर भ्रष्टाचार न होता तो ? ऐसा कह कर मेरे मित्र आसमान की ओर देखते हैं. वे भी एक आम आदमी की तरह उस सर्वशक्तिमान से अपेक्षा रखते हैं कि वह अवतार भले ही न ले मगर एक दिन अपनी जादुई ताकत से हमारा कल्याण करेगा. उनकी पैंतालीस साल की उम्र में अब तक उस उपरवाले ने कोई चमत्कार नहीं किया है. जड़ता की प्राचीर से जकड़ा हुआ हमारा समाज बहुत पहले की बात नहीं है और हम रुढियों से उपजे कष्टों की बेड़ियों में बंधे हुए आदिम कबीलाई लोग हैं. आज इस मुकाम पर खड़े हुए पाता हूँ कि जिस भारत को आज़ाद कह कर अंग्रेज छोड़ गए थे, वह वास्तव में दिग्भ्रमित, असंगठित समूहों और कबीलों का भौगोलिक आकार मात्र था. उसका उत्थान हुआ मगर वह अपेक्षित रूप से बहुत कम है. यही हमारी निराशा है. हमारे पास अतुलनीय ज्ञान था किन्तु श्रेणियों की सीढियों पर सबसे ऊपर बैठे हुए चंद लोग उस पर मालिकाना हक़ का दावा किय