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Showing posts from September, 2010

शोक का पुल और तालाब की पाल पर बैठे, विसर्जित गणेश

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[4] ये हमारी यात्रा की समापन कड़ी है.  सुख लीर झीर बजूके की तरह खड़ा रहता है और दुख के पंछी स्याह पांखें फैलाये हमारे जीवन को चुगते रहते हैं। कवास गाँव में बना सड़क पुल सैंकड़ों परिवारों के शोक की स्मृति है। इस पुल के नीचे सूखी रेत उड़ रही है। नदी अलोप हो चुकी है। रेगिस्तान में इस रास्ते सौ साल में एक बार नदी बहती है। किसी को ठीक से नहीं मालूम कि पिछली बार नदी कब आई थी और आगे कब आ सकती है। अभी चार साल पहले कुछ एक दिन की लगातार बरसात के बाद पानी के बहाव ने नालों का रूप लेना शुरू किया था। प्रशासन ने मुनादी करवाई कि अपने घर खाली कर लें। कभी भी नदी आ सकती है। रेगिस्तान का आदमी जीवन में दुख और संकट के बारे में अधिक नहीं सोचता। वह छाछ पीकर सो जाता है। उसके पास उपहास होता है "हमें आवे है नदी" उसके चेहरे पर व्यंग्य की लकीरें खिल आती हैं। पीने के पानी को तरसने वाले रेगिस्तान में रह रहे लोगों से कोई ये कहे कि नदी आ रही है तो भला कौन मानेगा। किसी ने नहीं माना। शाम की मुनादी के बाद तड़के तक कवास पानी में डूब गया। मिर्ज़ा ग़ालिब ने कहा "हुये मरके हम जो रुसवा हुये क्यों न गर

आओ शिनचैन लड़कियों के शिकार पर चलें

[3] हम उसे केवल छूकर देखना चाहते थे। हो सकता है पल भर उसके साथ होने की इच्छा थी। संभव है केवल घड़ी भर उसके साथ जी लेने का मन था। किसी को पाने की कामना का कोई बहुत दीर्घकालीन उद्धेश्य हो ज़रूरी नहीं है। सम्बन्धों में, चाहनाओं में, इच्छाओं में, आवश्यकताओं में कुछ भी स्थायी नहीं होता। रेल से होड़ करने की चाह रखने वाला दस साल का लड़का कुछ एक मिनट में उस चाहना को भूल गया। नाडी के बाहर बबूल के नीचे बैठे देवताओं के पास से एक जीप होर्न बजाते हुए निकली। विकट तो नहीं पर मोड़ है। यहाँ पर हॉर्न देना अच्छा है। चाहे वह देवताओं के लिए हो कि सामने से आने वालों को सचेत करने के लिए हो। हम जिप्सम हाल्ट पहुँच गए। रेल पीछे छूट गई थी। दुशु रेल को ही देख रहा था लेकिन आश्चर्य कि उसे रेल को हरा देने में मजा नहीं आया। रेल पास ही है। मैं नेशनल हाईवे पर रफ़्तार नहीं बढ़ाता हूँ। मुझे रेल से होड़ में कोई दिलचस्पी नहीं। इसलिए कि जब आप किसी से मुक़ाबले में उतरते हैं तब केवल एक स्पर्धा में कीमती जीवन बीत जाता है। मुझे ऐसा न करने का फल मिल गया। सड़क पर हलचल दिखाई दी। मेंने कहा- "दुशु उसे देखो" वह मेरी बग

हरे रंग के आईस क्यूब्स

[2] "हाँ भईया गाडी जा री है गढ़ड़े" मेरा रेगिस्तानी क़स्बाई बचपन फेरी की इस आवाज़ से भरा हुआ है। फिर थोड़ा रुककर "मिरचोंओओओं...." सायकिल के करियर और कैंची के बीच मिर्च की बोरियाँ रखे हुये ऊकजी दिख जाते थे। "मिरचोंओओओं.... मथाणीया री मिरचों। छेका आओ भाई गाड़ी जा री है गढ़ड़े" मिर्च रेगिस्तान के भोजन में इस तरह शामिल है जैसे हमारे जीवन में सांस। घर में सूखी लाल मिर्च है माने हर तरह का साग रखा हुआ है। लाल मिर्च नहीं माने जीवन की रसद खत्म हो गयी है। अच्छी लाल मिर्च मथानियां से ही आती थी। खाने में थोड़ी मीठी भी लगती थी। कथा संसार में सूखे मेवे बेचने वाले फेरीवाले हुआ करते थे लेकिन हमारा मेवा यही था। मिर्च और कच्चे लहसुन की चटनी घर में बन जाती तो माँ कड़ी नज़र रखती थी। सलीके से राशनिंग होती थी। ये हमारा सूखा मेवा था या नहीं मगर मोहल्ले भर की औरतें ऊकजी को शिकायत करती "हमके मोड़ा आया" ऊकजी कहते- "सरकारी नौकरी है टैम ही कोनी मिले" कलल्जी के पालिए के पास ऊकाराम कृषि फार्म का बोर्ड देखते ही में लाल मिर्च की याद से भर उठता हूँ। मुंह में चटनी

मुंह के बल औंधे गिरे हों और लॉटरी लग जाये

तुमको एक लट्टू की तरह घुमाकर धरती पर छोड़ दिया गया है। तुम्हारा काम है घूमते जाना और देखते-सीखते रहना। लुढ़क तो एक दिन अपने आप जाओगे।  जीवन आरोहण में उम्र कम होती जाती है और जीवन बढ़ता जाता है। उम्र की तस्वीर में रेखाओं की बढ़ोतरी जीवन चौपड़ की अनेक कहानियाँ कहती हैं। मनुष्य एक आखेटक है। वह अपने रोमांच और जीवन यापन के लिए निरंतर यात्रा में बना रहता है। असल में यात्रा ही जीवन है। अगर सलीके से दर्ज़ कीजाए तो कुछ बेहद छोटी यात्राएं भी हमें अनूठे आनंद से भर देती हैं। मेरा बेटा ऐसी ही एक छोटी सी यात्रा पर मेरे साथ था।  इस दौर के बच्चे सबसे अधिक सितम बरदाश्त कर रहे हैं। उनको अनवरत माता-पिता की लालसा और पिछड़ जाने के भय की मरीचिका में दौड़ते जाना होता है। दस साल का बच्चा है और चौथी कक्षा में पढ़ता है। समझदार लोगों से प्रभावित उसकी मम्मा कहती है कि ये एक साल पीछे चल रहा है. मैं कहता हूँ कोई बात नहीं एक साल कम नौकरी करनी पड़ेगी। हम सब अपने बच्चों को अच्छा नौकर ही तो बनाना चाहते हैं। दरिया खत्म, बांध तैयार। लेकिन फ़िलहाल हम दोनों में ये तय है कि वह जैसे पढ़ और बढ़ रहा है, उसकी मदद की जाये। 

मैं तुम्हारी आँखों को नए चिड़ियाघर जैसा रंग देना चाहती हूँ

डिक नोर्टन को कम ही लोग जानते हैं. मैं भी नहीं जानता. उसके बारे में सिर्फ इतना पता है कि वह एक विलक्षण लड़की का दोस्त था. उससे दो साल आगे पढ़ता था. उस लड़की ने उसे टूट कर चाहा था. वह कहती थी, तुम्हारी साफ़ आँखें सबसे अच्छी है मैं इनमे बतखें और रंग भर देना चाहती हूँ एक नए चिड़ियाघर जैसा... उस लड़की का नाम सिल्विया प्लेथ था. हां ये वही अद्भुत कवयित्री है जिसने लघु गल्पनुमा आत्मकथा लिखी और उसका शीर्षक रखा 'द बेल जार' यानि एक ऐसा कांच का मर्तबान जो चीजों की हिफाज़त के लिए ढ़क्कन की तरह बना है. प्लेथ ने आठ साल की उम्र में पहली कविता लिखी थी. इसके बाद उसने निरंतर विद्यालयी और कॉलेज स्तर की साहित्यिक प्रतियोगिताएं जीती. उसके पास एक मुक्कमल परिवार नहीं था. वह अकेले ही नई मंजिलें गढ़ती और फिर उन पर विजय पाने को चल देती थी. उसके भीतर एक प्यास थी कि वह दुनिया को खूबसूरत कविताओं से भर देना चाहती थी. वह पेंटिग करती थी. उसे गाने का भी शौक था. उसने कुछ एक छोटी कहानियां भी लिखी. जो उसने हासिल किया वह सब दुनिया की नज़र में ख़ास था किन्तु स्वयं उससे प्रभावित नहीं थी. उसकी कविता

दिनेश जोशी, आपकी याद आ रही है.

अब उस बात को बीस साल हो गए हैं. वे फाके के दिन थे. शाही समौसे और नसरानी सिनेमा की दायीं और मिलने वाली चाय के सहारे निकल जाया करते थे. उन्हीं दिनों के प्रिय व्यक्ति दिनेश जोशी कल याद आये तो वे दिन भी बेशुमार याद आये. मैं डेस्क पर बैठ कर कई महीनों से प्रेस विज्ञप्तियां ठीक करते हुए इस इंतजार में था कि कभी डेट लाइन में उन सबको भी क्रेडिट मिला करेगी, जो अख़बार के लिए खबरें इस हद तक ठीक करते हैं कि याद नहीं रहता असल ख़बर क्या थी. हमारे अख़बार के दफ्तर में ग्राउंड फ्लोर पर प्रिंटिंग प्रेस और ऊपर के माले में एक हाल के तीन पार्टीशन करके अलग चेंबर बनाये हुए थे. एक में खबरों के बटर पेपर निकलते थे दूसरी तरफ पेस्टिंग, ले आउट और पेज मेकिंग का काम होता था. बाहर की तरफ हाल में रखी एक बड़ी टेबल पर तीन चार लोग, जो खुद को पत्रकार समझते थे, बैठा करते थे. मैं भी उनके साथ बैठ जाया करता था. एक सांध्य दैनिक में काम करते हुए कभी ऐसे अवसर नहीं मिलते कि आप कुछ सीख पाएं, सिवा इसके कि हर बात में कहना "उसको कुछ नहीं आता". इसी तरह के संवादों से दिन बीतते जाते हैं. ऐसे अखबारों के हीरो क्र

हम तुम... नहीं सिर्फ तुम

अभी बहुत आनंद आ रहा है. रात के ठीक नौ बज कर बीस मिनट हुए हैं और मेरा दिल कहता है कुछ लिखा जाये. खुश इसलिए हूँ कि चार दिन के बुखार के बाद आज सुबह बीवी की डांट से बच गया कि मैंने दिन में अपने ब्लॉग का टेम्पलेट लगभग अपनी पसंद से बदल लिया कि एक दोस्त ने पूछा तबियत कैसी है कि अभी आर सी की नई बोतल निकाल ली है... हाय पांच सात दिन बाद दो पैग मिले तो कितना अच्छा लगता है. सुबह ख़राब हो गई थी. मेरे समाचार पत्र ने अपने परिशिष्ट का रंग रूप तो बदला मगर आदतें नहीं बदली. यानि वही सांप वाली फितरत कि मध्य प्रदेश में व्यापार करने और अख़बार के पांव जमाने को भारतीय जनता पार्टी को गाली दो लेकिन हिंदुस्तान की खुशनुमा फेमिली के तौर पर भाजपा नेता शाहनवाज हुसैन और उसकी पत्नी का इंटरव्यू छापो. चाचा, कृष्ण के वैज्ञानिक तत्व पर शोध की पोल यहीं खुल जाती है. तुमसे तो कुलिश साहब अच्छे थे कि जो करते थे, वही कहते भी थे. तुम मीर तकी मीर से शाहिद मीर तक को भुला देना चाहते हो और संगीत में अन्नू मलिक को हिंदुस्तान का सिरमौर मनवाना चाहते हो, कि तुम्हें सब भूल जाता है और एक आमिर खान का लास्ट पेज पर पांच सेंटी मी

अफीम सिर्फ एक पौधे के रस को नहीं कहते हैं

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उसे मरने से बीस दिन पहले अस्पताल में लाया गया था. उसने ज़िन्दगी के आखिरी दिन एक पुलिसकर्मी की परछाई देखते हुए बिताये थे. वह लीवर और ह्रदय के निराशाजनक प्रदर्शन से पीड़ित थी. उसका नाम एलोनोरा फेगन था और बेल्ली होलीडे के नाम से पहचानी जाती थी. वह अमेरिका की मशहूर जोज़ गायिका थी. पैंतालीस साल की होने से पहले ही मर गई. उसे अफीम से बेहद लगाव था. इसके लिए वह कुछ भी कर सकती थी. कुछ भी यानि कुछ भी...इंसान की अपनी कमजोरियां होती है. उसकी भी थी. मुझे लगता है कि उसकी ज़िन्दगी के आखिरी दिन उस भारतीय आम एकल परिवार जैसे थे. जिसमे पत्नी या पति को विवाहपूर्व या विवाहेत्तर सम्बंधों का पता चल जाये फिर तुरंत रोने -धोने, लड़ने - झगड़ने और आरोप - प्रत्यारोप के बाद अपराधी को अन्य परिवारजनों द्वारा नज़रबंद कर दिया जाये. ऐसे ही लेडी डे के नाम से मशहूर उस स्त्री के हालात रहे होंगे कि वह अपनी कमजोरियों पर बैठे एक पहरेदार को देखते हुए मर गई और ठीक इसी तरह कई परिवार भी तबाह हो गए. नशाखोरी और देहिक सम्बन्धों की चाह सभ्य समाज में अनुचित है, अपराधिक है... मगर है. हमारा समाज कथित रूप से बहुत ही सभ्य है. सभ्य