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Showing posts from March, 2010

एक लम्हे के बाद

कुम्हार के चाक सी नहीं होती है ज़िन्दगी कि सब कुछ उपयोगी और सुन्दर बनाते हुए ठीक वहीं आकर चक्का रुक जाये जहाँ से शुरू हुआ था. इससे से तो हर पल कुछ छीजता जाता है, किसी अल्पव्यय हानि की तरह जिसकी भरपाई कभी संभव नहीं होती. मैं सुबह घर से निकला हुआ शाम होते ही दिन पर फतह हासिल करने के जश्न को किसी के साथ नहीं बांटता क्योंकि जिस तरह से इन दिनों मैं ज़िन्दगी को देखता हूँ. उसे मनो चिकित्सक नकारात्मक समझते हैं. हिसाब इसका भी कुछ खास नहीं है कि जो सकारात्मक माने जाते हैं वे आधी रात को नींद आने से पहले क्या सोचते होंगे ? रात को एक पुराने दोस्त और सहकर्मी मेरे साथ थे. हमने ' ज़िन ', आलू चिप्स, खीरा और नीम्बू के साथ बीत चुके दिनों की जुगाली की. जो मालूमात हुई वह भी ख़ास उत्तेजित नहीं करती है कि हम जब पहली बार मिले थे तब से अब तक अपने सत्रह साल खो चुके हैं. घर लौटा तो हवा तेज थी. घर का पिछवाडा जिसे मैं बैकयार्ड कहता हूँ वहीं परिवार सोया करता है. दीवार के सहारे लकड़ी के बड़े भारी पार्टीशन खड़े किये हुए हैं. रात तीन बजे आस पास उनमे से एक पार्टीशन हवा के तेज झोंके के साथ जमींदोज हो गया

ना-खुदा मैं शायद तेरा न था

भाई, तुम अगर होते तो शायद झगड़ कर घुन्ना बने बैठे होते हम एक दुसरे से लेकिन तुम मर चुके हो बरसों पहले और मेरे लिए तुम अब बस एक विषय रह गए हो क्या कुछ और भी संभव था जबकि न मैं तुमसे कभी मिला न देखा तुम्हें ? महेन की ये पंक्तियाँ मन को आलोड़ित कर देती है. बचपन में ज़िन्दगी से आगे निकल गए, एक अनदेखे भाई को स्मृत करती हुई कविता है. आवेगों को अपने केंद्र के आस पास घनीभूत करती है. भाई के होने और न होने के बीच के अन्तराल को माँ की आँख से देखने का प्रयास करती है. किन्तु कविता अपने आरंभिक संवेदन का गीला भीगा मौसम आगे बना कर नहीं रख पाती और दुनियावी चमत्कारों में विलीन हो जाती है. इस कविता को हाल में एक मित्र ने मुझे मेल किया था और कल मुकेश अम्बानी साहब को ब्रेबोर्न स्टेडियम की दर्शक दीर्घा से नीचे झांकते हुए देखा तो मुझे अनायास इसकी याद हो आई. आज अनिल अम्बानी ने सड़क पर खड़े होकर अपने बड़े भाई को आवाज़ दी होती तो क्या वे अपने घर की बालकनी में आकर इसी तरह नीचे देखते हुए जवाब देते ? हर भारतीय, औपनिवेशिक देशों के इस खेल की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है. मैं भी आईपीएल के मैच देखता हूँ क्योंकि मेरे ऍनलाईट

किसी तरह तो जमे बज़्म

ख़ुशी और उदासी के लिए कितनी छोटी - छोटी सी बातें पर्याप्त होती है. कल शाम को डॉ. विजय माल्या मुझे बहुत उदास दीखे, चार घंटे बाद वही उदासी ख़ुशी में बदल गयी. वे आईपीएल में खेल रही अपनी टीम रोयल चेलेंजर बेंगलोर के लिए चीयर अप करने आये थे. पहली सीजन के आगाज़ में ही विकेटकीपर बल्लेबाज मेक्यूलम ने सब गुड गोबर कर दिया था. रोयल चेलेंजर के गेंदबाजों की बेरहमी से धुलाई की. उस किवी खिलाडी की आतिशी पारी को देखते हुए कोलकाता नाईट राईडर टीम के फ्रेंचाईजी, सिनेमा के हीरो पद्मश्री शाहरुख खान साहब अपने बांके मुंह की टेढ़ी मुस्कान को बिखरते हुए नाचते रहे. रोयल चैलेंजर के कैब में किंगफिशर एयरलाईन की हवाई सुंदरियाँ, फैशन शो में छाई रहने वाली, सूखी हुई काले पीले रंग की देह वाली केट्वाक गर्ल्स, अपने पांवों को विशेष ज्यामिति में सलीके से टेढ़े किये खड़ी हुई थी. उनके बीच में दक्षिणी केलिफोर्निया विश्विद्यालय से व्यवसाय क्षेत्र में डाक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित विजय माल्या अपने मातहतों को कोस रहे थे कि उनको अपनी पसंद के खिलाडी नहीं चुनने दिए गए और अब ये पजामा छाप बल्लेबाज उनके सम्मान की ऐसी तेसी कर रहे हैं

इंसान करीने के

मेरा ये हाल था कि दरसी किताबों में जो नज़्में थी. उनमे मुझे कोई कशिश नहीं मिलती थी. लेकिन अगर किसी शेर या नज़्म का ऐसा टुकड़ा हाथ आ जाता था जिसमे बचपन के शऊर के मुताबिक मुझे रस, तरन्नुम और रंगीनी मिले, तो ये चीज़ें मेरे दिल में ख़ामोशी से उतर जाती थी. मैं खेलते - खेलते उन नज्मों में खो जाता था और अक्सर अपने साथियों और हमजोलियों में उन मौकों पर अपने आपको तनहा महसूस करता था. ये फ़िराक गोरखपुरी का वक्तव्य है. जो रूहे - कायनात की भूमिका में लिखा हुआ है. मैं सोचने लगा कि हिंदुस्तान का एक खूबसूरत शाईर बचपन में भी कितना ज़हीन था और समझ के हिसाब से तनहा. भविष्य में जिसने भाषा प्रभाग के हर कमरे में बैठ कर अपनी बात को अधिकार पूर्वक कहा. जिसके शेर सुन कर बड़े - बड़े शाईर रश्क और हौसला करते रहे. हमारे देश में ऐसा कोई विश्वविद्यालय नहीं रहा होगा, जहाँ होस्टल्स के चंद संजीदा कमरों में हर साल इस शाईर के शेर बार बार न पढ़े गए हों. फ़िराक साहब की इमेज इस तरह प्रचारित थी कि आम तौर पर सब मुशायरों का अंत उनके लौंडेबाजी के किस्सों और उसी पर कहे गए चुटीले शेरों से होता रहा है. मजाह निगार कहते रहे हैं कि एक दोशीजा

दोस्त, उस पार भी कोई हसीन सूरज नहीं खिला हुआ है...

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मुझे विस्की प्रिय है और रम मेरी आखिरी पसंद. इनके बीच हर उस तरह की शराब समा सकती है, जो पीने लायक है भी और नहीं भी. मैंने पहली धार की देसी शराब पी और लुढ़क गया. मैंने रात भर सड़क के किनारे बैठ कर आला अंग्रेजी शराब पी और सुबह उससे निराश हो कर सो गया. मैंने शराब पीकर अपने प्रियजनों को वे अद्भुत बातें कहीं हैं, जो बिना पिए कभी नहीं कह पाता. मुझे पहाड़ नसीब नहीं हुए जहाँ से मैं अपनी प्रतिध्वनि सुन सकूँ. मुझे अथाह रेत का सागर मिला जो अपने भीतर सब कुछ सोख लेता है. मेरी हर आवाज़ अनंत में खो जाती है. मेरे कई दोस्त समय के प्रवाह में इत्ते दूर बह गए हैं कि उनकी स्मृतियाँ लोप होने को आतुर है. वैसे एक मनुष्य कितना याद रख सकता है ? साहित्य का इतिहास, मूर्तिकला की अनूठी परंपरा और भौगोलिक पैमाने, एक हज़ार साल से आगे सर्वसम्मत राय नहीं बना सकते. कुल जमा इस सदी के विलक्षण मानव का ज्ञान क्या है ? ये सोचते ही मैं हैरान हो जाता हूँ कि साठ साल औसत आयु वाला इन्सान सौ साल तक जी सकता है. इससे आगे के किस्से अपवाद होंगे यानि हमारी सौ पीढ़ियों के अतिरिक्त हमारे पास कहने को कुछ नहीं है... बावजूद इसके तमाम माँ - बाप अ

कमबख्त नशीली गालियां

मौसम की ठण्ड को होली के रंग उडा ले गए तो एडिडास की गंजी भी कुछ चुभने लगी है. घर के बैकयार्ड से लगते कमरे में नाश्ता करके बिस्तर तोड़ रहा हूँ. तीन दिन से पीने को नहीं मिली इसलिए कुछ करने का मन नहीं है. पर्वों और त्योहारों में जाने क्यों पीना सुहाता ही नहीं. इसका एक संभावित उत्तर हो सकता है कि मैं बच्चों और मेहमानों के साथ, इन दिनों को बहुत करीब बैठ कर बिताना चाहता हूँ. खैर इतना अच्छा हो जाना साल भर के बाकी दिनों के लिए काफी है. आज होली का आखिरी दिन है यानि सामूहिक रंग खेलने के बाद, औरतों का खास दिन. अभी बाहर गली में होली के गीत हैं, गीत क्या है नशे में लिपटे शब्द है. जिनको सींक पर किसी कबाब की तरह सेक कर परोसा जा रहा है. सांवले और काले रंग की देह वाली पैंतीस से पैंतालीस साल की आदिवासी भील समुदाय की औरतों का ये समूह मेरी स्मृति में उन दिनों से है जब मैंने कुछ याद रखना सीखा होगा. वे आज शराब भी पी लेंगी और बिना पिए भी ऐसी गालियां गायेंगी कि मेरे भीतर का मर्द शरमा जायेगा. अभी उन्होंने चार पंक्तियाँ गाई है कि मेरी माँ आ गयी... गीत की अगली पंक्तियाँ उलझ कर एक दबी हुई समवेत हंसी के साथ हवा में