मीनारों से उतरती ऊब का मौसम

वाईट मिस्चीफ़ की बोतल में एक पैग बचा रह गया है. वह एक पैग किसी शाम के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता. बस उसे रोज़ देखता हूँ और आर सी पीने बैठ जाता हूँ. विस्की के साथ ज़िन को पीने का कोई मतलब नहीं है इसलिए हर रात वह बचा रह जाता है. एक सफ़ेद पोलीथिन का लिफाफा रखा है. इसमें कॉलेज और नौकरी के शुरूआती दिनों की स्मृतियां है. ख़तों में शुभकामनाएं, ग्रीटिंग कार्ड्स में सुनहरी स्याही से लिखी दुआएं और कुछ पासपोर्ट साइज़ के फोटोग्राफ्स है. इन ख़तों और तस्वीरों का कोई मतलब नहीं है फिर भी वे कई सालों से बचे हुए हैं. कुछ कार्ड्स मुझे अपील करते हैं. ये अपील उस उपेक्षित किले जैसी है जिसमें बरसों से कोई पदचाप नहीं सुनाई देती, जिसकी घुड़साल से घोड़े समय के पंख लगा कर उड़ गए हैं. तीमारदारी में लगे रहने वाले सेवक काली बिल्लियों में बदल गए हैं और मेहराबों के पास के झरोखों में बैठे एक आँख से टोह ले रहे हैं.

ऐसे में एक ऊब चुप से पसरती हुई घेरने लगती है. मुझे इसकी आदत है. बरसों से ऐसा होता आया है कि ऊब के आते ही मैं समर्पण करने लगता हूँ. यह अनचाहा न होकर स्वेच्छिक होता है. जैसे पहले प्रेम में कोई षोडशी समस्त भयों से सहमी हुई होने के बावजूद अपने प्रियतम को इंकार नहीं कर पाती. उसके इंकार सम्मोहन में खो जाते हैं फिर वह खुद को कोसती रह जाती है कि मैंने ऐसा क्यों होने दिया. इस ऊब के आने के बाद मैं उनींदा होने लगता हूँ. मुझे लगने लगता है कि अब मैं जाग नहीं पाऊंगा. मेरे मन में सो जाने के प्रति बहुत से भय हैं. उनमे सबसे अधिक कष्टदायी है, न जाग पाने का भय... यह एक अतिसामान्य मनोरोग है लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि इसके उपचार के लिए सोना जरुरी है.

मैं अपनी नींद के छोटे छोटे हिस्से चुराता रहता हूँ. इस प्रक्रिया से छः सात महीने में एक बार मुझे नींद घेरने लगती है. मेरे इंकार खो जाते हैं. मैं समर्पण नहीं करना चाहता किन्तु वह मुझे कीट भक्षी पौधों के फूल की तरह अपने में समेट लेती है. एफ एम 100 .7 पर काम करने के दिनों में दो दिन ऑफिस नहीं पहुंचा तो मेरे साथी प्रेजेंटर खोजने आये, मैं उन्हें सोता हुआ मिला. जब अकेला नहीं रहा तब पत्नी की गैर मौजूदगी में यह आयोजन संपन्न हो जाता किन्तु एक बार वह और बेटी पड़ौस में गए. वे कोई घंटे भर में लौट आये लेकिन मैं अपने सरकारी फ्लेट का दरवाजा बंद करके सो चुका था. दो साल की बच्ची को गोद में लिए हुए वह डोरबेल बजाती रही. पड़ौसियों ने आदिवासी शोरगुल से मुझे जगाया और मैं दरवाजा खोल कर फिर सो गया. रात दस बजे आँख खुली, वह घुटनों को मोड़े हुए मेरे पास बैठी थी. उदास और भयभीत.

मैंने बहुत साल अकेले रहते हुए बिताये हैं. एक कमरा, किताबें, म्यूजिक प्लेयर, ग़ज़लें, सिगरेट, शराब, तन्हाई और खालीपन... कुल मिला कर इस काकटेल से मैंने खुद को ख़राब किया. पिछले सात आठ दिन से वही खराबी फिर से घेर रही है. दो दिन और एक रात सोने के बाद आज शाम को जागा हूँ और नई दुनिया को समझने की कोशिश करता हूँ. अपने होने के अहसास को आश्वासन देता हुआ. इन कोशिशों में याद आता है कि दो लोग मिल कर मुहब्बत नहीं कर सकते, कि दुनिया में बहुतायत के बावजूद ये शय बहुत तनहा है, कि इसकी खोज में निकले हुए लोग अक्सर मुड़ मुड़ कर पीछे देखते हैं.

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शाम हुई है और विस्की पीते पीते उकता कर मैंने, ज़िन का पैग भी पी डाला है.
कोई कविता कोई कहानी नहीं सूझती, बस तेरी आहट की लरज़िश, मेरी छत पर उतर रही है, एक सिनेमा चल निकला है, ईंटों के घर की कच्ची छत पर, बिछे हुए सन्नाटे में, यादों का चूरा उड़ता दीखता है, उस चूरे में एक उजला दिन निकला है, दिन की तपती पीठ पे इक सायकिल फिसली जाती है, सायकिल पर रखे बस्ते में इक गीला दरिया बैठा है, यादों की रंगीन मछलियाँ गोते दर गोता खाती सी कोई लाकेट ढूंढ रही है जो तूने आँखों से चूमा था...

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ऊब इस कदर तारी है कि लिखी हुई पोस्ट को ड्राफ्ट में छोड़ दिया था.
फरियादी शाम है और रातों का पारा गिरने को है. सात आसमानों के पार से कोई ख़त नहीं आएगा फिर भी मैंने दो कुंवारे दीये अलग से रखे हैं कि उन ख़तों को पढने के लिए तेरी पेशानी का नूर कहां से लाऊंगा.

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