शोक का पुल और तालाब की पाल पर बैठे, विसर्जित गणेश

[4] ये हमारी यात्रा की समापन कड़ी है. 


सुख लीर झीर बजूके की तरह खड़ा रहता है और दुख के पंछी स्याह पांखें फैलाये हमारे जीवन को चुगते रहते हैं।

कवास गाँव में बना सड़क पुल सैंकड़ों परिवारों के शोक की स्मृति है। इस पुल के नीचे सूखी रेत उड़ रही है। नदी अलोप हो चुकी है। रेगिस्तान में इस रास्ते सौ साल में एक बार नदी बहती है। किसी को ठीक से नहीं मालूम कि पिछली बार नदी कब आई थी और आगे कब आ सकती है। अभी चार साल पहले कुछ एक दिन की लगातार बरसात के बाद पानी के बहाव ने नालों का रूप लेना शुरू किया था। प्रशासन ने मुनादी करवाई कि अपने घर खाली कर लें। कभी भी नदी आ सकती है। रेगिस्तान का आदमी जीवन में दुख और संकट के बारे में अधिक नहीं सोचता। वह छाछ पीकर सो जाता है। उसके पास उपहास होता है "हमें आवे है नदी" उसके चेहरे पर व्यंग्य की लकीरें खिल आती हैं।

पीने के पानी को तरसने वाले रेगिस्तान में रह रहे लोगों से कोई ये कहे कि नदी आ रही है तो भला कौन मानेगा। किसी ने नहीं माना। शाम की मुनादी के बाद तड़के तक कवास पानी में डूब गया। मिर्ज़ा ग़ालिब ने कहा "हुये मरके हम जो रुसवा हुये क्यों न गर्क ए दरिया, न कहीं जनाजा उठता न कहीं मज़ार होता।" मजार तो वैसे भी न बननी थी मगर जनाने खूब उठे। सड़कें बह गई, बिजली गुल हो गई, फोन सेवाएं ठप हो गई थी। रेगिस्तान की बाढ़ में दो सौ पच्चीस लोग लापता हो गए। वे शव यात्राओं के दिन थे। टेलीफोन के पुराने पोल्स पर जानवरों के शव तैरते हुए अटके थे। बचावकर्मी डूब गए तो वायुसेना में मातम पसर गया। चार दिन बाद एक दुर्गंध फैलने लगी। महामारी की आशंका के बीच देश भर के बचाव और स्वास्थ्य विशेषज्ञों के दल पहुंचे। यूपीए की चेयरपर्सन ने देखा और अफ़सोस जताया।

ये पुल उन्हीं शोक के दिनों की स्मृति से बढ़ कर कुछ नहीं है।

पुल और मेरा पैतृक गाँव तीन किलोमीटर के फासले पर हैं। घर को याद करते ही दुखों के आवेग कम होने लगते हैं। हरे खेतों में तना हुआ लाल-पीले रंग वाला शामियाना सुंदर दिखता है। यहाँ एक विवाह का भोज है। दुशु को इन दिनों जीमण में बड़ा मजा आता है। वह इस तरह के समारोहों में ज़मीन पर बिछी दरी पर बैठकर खाना खाने को लालायित रहता है। असल में खाने से अधिक उसे उन भाइयों के साथ बैठने में आनंद है जिनसे वह कम ही मिल पाता है, जिनको याद रखना भी संभव नहीं है। वह भोजन के स्वाद की कड़ी समीक्षा करता है।

यहाँ आकर हम सुख से भर जाते हैं। जैसे शहर की भीड़ में खो गए थे और अब फिर से ठिकाने लग गए हैं। ग्रामीण आत्मीयता को बहुराष्ट्रीय तेल कंपनी निगल चुकी है फिर भी अपनों के चेहरे देखना सुकून देता है। जीमण के बाद हम दोनों अपनी बाइक पर फिर से सवार हुये। जिस रास्ते गए थे उसी रास्ते लौटना था।

हम लौटते समय उतरलाई नाडी पर रुके। मैंने कहा- "सर, नाडी का मुआयना कर लिया जाए।" उसने कहा- "हाँ।" मैंने दुशु को बताया कि मैं अपने मामा के साथ इस नाडी तक आता था। उनके पास तीन चार ऊंट थे। भेड़ें और बकरियाँ तो थी ही। मुझे मामा ऊंट पर नहीं बिठाते थे। उनको डर लगता था कि मैं गिर जाऊंगा। मैं उनके साथ पैदल चलकर जालिपा से उत्तरलाई आया करता था। तब ये नाडी बहुत बड़ी लगती थी। अब मुझे ये बहुत छोटा सा तालाब लगता है।

हम दोनों नाडी की पाल चढ़कर अंदर चले आए। एक पेड़ के पास बने ओटे पर बैठ गए। पानी को छूकर आती हवा ठंडी थी। कुछ एक पक्षी जलक्रीड़ा में खोये थे। किनारे पर भगवान गणेश मूर्तियाँ रखी थी। दुशु उनको देखने लगा। उसने पूछा- "ये इतनी सारी मूर्तियाँ क्यों रखी हैं।" मैंने कहा- "स्वार्थी मनुष्य कुछ भी कर सकता है। वह देव बनाकर घर ला सकता है और कूड़ा बनाकर कहीं फेंक भी सकता है।" दुशु कहता है- "मैंने टीवी में देखा है। गणेश प्रतिमा को समंदर में डालने जाते हैं।"

संस्कृति के नाम पर अब राज्यों की अलग पहचान कुछ नहीं है। सबकुछ अंतर्राष्ट्रीय होता जा रहा है। राजस्थान के लोग गंवर की शोभायात्रा के बारे में बहुत कम जानते हैं। लेकिन वे हर बरस नए पुंठिए खरीदने नहीं भूलते। गरबा एक बाज़ार हो गया है। लोग इस परमानंद में रहना चाहते हैं। हमारा गरबा जो कि आदिवासियों का लूर नृत्य था, आज चकाचौंध से भर गया है। घूमर रमती राजस्थानी की स्त्रियाँ गायब हैं। जबकि आयातित गणेश चतुर्थी, दुर्गा पूजा जैसे आयोजन रेगिस्तान के तालाबों के लिए मुसीबत बनकर आए हैं। घर में नल से पीने का पानी आ रहा है तो किसी को क्या परवाह की तालाब का मोल क्या है। उसे प्लास्टर के कचरे से पाट दो। जय गणेश को जय विघ्नकर्ता बना दो।

उत्तरलाई नाडी पर मूर्तियाँ विसर्जित होने को आई तो गाँव के लोगों ने कोतूहल से देखा। बाद में उनको मालूम हुआ कि देवताओं के नाम पर तालाब को कचरे से भरा जा रहा है। गाँव के लोग जमा हो गए। उन्होने कहा- "ऐसे देव और ऐसी रीति अपने घर में रखिए। हमारे तालाब नष्ट मत कीजिये।" कथित धर्मांध लोग ऊंची आवाज़ में बोले "हिन्दू धर्म- हिन्दू धर्म" तो गाँव वालों ने कहा "पगरखियाँ फटी हुई हैं जहां पड़ी, वहाँ से खाल उतार लेगी। अपने देवता को घर में इज़्ज़त से रखो, गिंडक की तरह अंदर बाहर दुत्कारों मत"

मूषक पर सवार गणेश प्रतिमा को देख कर बेटा पूछता है- "पापा ये चूहा इतना बड़ा क्यों है और भगवान इतने छोटे क्यों हैं?" मैं उसकी गहरी भूरी निश्छल आँखों में झांकते हुए कहता हूँ- "बेटा, चूहे को भगवान ने बनाया है और भगवान को इंसान ने..."

मैं गणेश भगवान से कहता हूँ ऐसे मिट्टी की मूरत बने न बैठे रहो। कुछ चमत्कार करो। ये तालाब बहुत ख़ूबसूरत हुआ करता था। इसे फिर से वैसा ही बना दो। कुदरत के आगे हाथ जोड़ते हुये हम बाइक पर सवार होकर अरावली की छोटी पहाड़ियों की उपत्यका में बसे बाड़मेर की ओर चल देते हैं।
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मैं अच्छा यात्री नहीं हूँ मगर जहां भी जाता हूँ मुझे कुदरत, लोगों और पशु पक्षियों को देखकर प्रसन्नता होती है। मैं इन सब को आँख भरकर देख लेना चाहता हूँ। इन सबको शब्दों में मांड देना चाहता हूँ। आपने इन कड़ियों को प्रेम से पढ़ा। कमेन्ट किए और प्यार दिया। इसके लिए आपको बहुत सारा प्यार।

इति॥