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Showing posts from August, 2010

ब्रिटनी मर्फी और ये याद का टीला

पानी के बह जाने के बाद रेत पर जानवरों के खुरों के निशान बन आये हैं. उन्हीं के साथ चलता हुआ एक छोर पर पहुँच कर बैठ जाता हूँ. सामने एक मैदान है. थोड़ा भूरा थोड़ा हरा. शाम ढलने में वक़्त है. ये विक्रमादित्य का टीला नहीं है, ये किसी प्रेयसी की याद का टीला है. यहाँ से एक काफिला किसी सुंदरी को जबरन लेकर गुजरा होगा. वह कितनी उदास रही होगी कि पूरे रस्ते में वही अहसास पीछे छोड़ गई है. मैं भी अक्सर चला आया करता हूँ. मैं अपने साथ कुछ नहीं लाता. पानी, किताब, सेल फोन जैसी चीजें घर पे छोड़ कर आता हूँ. मेरे साथ कई दिनों के उलझे हुए विचार होते हैं. मैं उनको रेत की सलवटों पर करीने से रखता हूँ. रेत की एक लहर से आकर कई सारी लहरें मिल रही हैं. इन्हीं में एक ख्याल है साईमन मार्क मोंजेक का, वह उसी साल दुनिया में आया था जिस साल मैंने अपनी आँखें खोली थी. मैं इस समय रेत के आग़ोश में किसी को सोच रहा हूँ और वह होलीवुड की फोरेस्ट लान में बनी अपनी कब्र में दफ़्न है. वह बहुत ख्यात आदमी नहीं था. उसने दो तीन प्रेम और इतनी ही शादियाँ की थी. इसमें भी कुछ ख़ास नहीं था कि उसने कुछ फिल्मे बनाई, निर्देशन

क्रश... क्रश... क्रश.. काश, लोबान की गंध से बचा रहूँ.

आसमां में बादलों के फाहे देखता हूँ और कमरे में अपने वजूद की तरह बिखरी बिखरी चीजें. म्यूजिक सिस्टम के स्क्रीन पर वेव्ज उठ कर गिर रही है. लोक संगीत के सुर बज रहे हैं. रात में रीपीट मोड में प्ले किया था. तीन बजे के बाद शायद दीवारों ने सुना होगा, मुझे नींद आ गई थी. इन दिनों में व्यस्त भी बहुत हूँ और खुश भी तो याद आता है कि ऐसा ही दस साल पहले भी था. उन सालों में ज़िन्दगी ने मुझे एक साथ कई वजीफे दे रखे थे. मैं जिधर देखता था मुहब्बत थी. एक सुबह राजेश चड्ढा ने कहा 'चलो, आपको लैला - मजनूं की मज़ार दिखाते हैं.' वो रेत का दरिया ही था, जिसमें से हम गुजर रहे थे. कोई एक सौ किलोमीटर से भी ज्यादा पाकिस्तान की तरफ चलते रहने के बाद हम गाड़ी से उतर गए. मेरे कदम जिस तरफ बढ़ रहे थे, उसी तरफ से लोबान की गंध तेज होती जा रही थी. मैंने लैला मजनूं का किस्सा बचपन में सुना था. मेरी स्मृतियों में मजनूं अरब देशों के रेगिस्तान में भटकते हुए मुहब्बत की फ़रियाद करता था. उस दिन अचानक मैं उसकी मज़ार के सामने खड़ा था. मुझे नहीं मालूम कि उन दो मज़ारों का सच क्या है किन्तु वहां से लौटते ही मैं अगली रात की ग

धोधे खां की बकरियां और विभूति नारायण राय

इस रेगिस्तान में जन्मे धोधे खां की अंतर्राष्ट्रीय पहचान है. वे एक बहुत दुबले पतले और पांच वक़्त के नमाजी इंसान है. उनके पास जो संपत्ति है. वह एक झोले में समा जाती है. जो नहीं समा पाता वह है बकरियों का रेवड़ और कुछ किले ज़मीन. उन्होंने राजीव गाँधी की शादी में अलगोजा के स्वर बिखेरे थे. उनका मानना है कि इस संगीत को सुन कर इंदिरा गाँधी प्रसन्न हो गई थी. उन्होंने अपने हाथ से कुछ सौगात भी दी थी. भले ही अलगोजा जैसा वाद्य हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में शहनाई जितना उचित सम्मान न पा सका हो लेकिन उन्हें फ़ख्र है कि दिल्ली एशियाड का आगाज़ अलगोजा के स्वर से ही हुआ था. मैंने जाने कितने ही घंटे उनके अलगोजा को सुनते हुए बियाते हैं. वे मेरी ज़िन्दगी के सबसे सुकून भरे पल थे. वह ख़ास कलाकार इतना सहज है कि रिकार्डिंग स्टूडियो और बबूल के पेड़ की छाँव में फर्क नहीं करता. इसीलिए मैं उसका मुरीद भी हूँ. मैंने बहुत नहीं तो कुछ नामी कलाकारों के पास बैठने का अवसर पाया है लेकिन इस सादगी को वहां नहीं पा सका. धोधे खां ने दुनिया के पचास से अधिक देश देखे होंगे और वहां के लोगों का प्यार पाया होगा. उनकी गह