शामें सुस्त है मगर बोझिल नहीं

छः दिन हो गए हैं. शाम सात पचास पर सीढियां चढ़ता हूँ, घूम कर मुड़ता हुआ फिर से चढ़ता हूँ और ऐसे मैं अपनी छत पर पहुंचता हूँ. मेरे हाथ में लेपटोप, एक चिल्ड पानी की बोतल, बच्चों टिफिन जैसे प्लास्टिक के पात्र में स्नेक्स और बीवी के गोल लंच बोक्स जैसी बंद होने वाली कटोरी में सलाद होता है. छत पर एक झोंपड़ी की शेप का कमरा है. जिसमे तीन तरफ से हवा आती है. उसके आगे बरामदा और लेट-बाथ है. इस झोंपड़ी में तीन चारपाइयां और छत पर बिछाने लायक बिस्तर रखे हैं. एक सोफा है और तीस - पैंतीस आंग्ल भाषा में छपी हुई प्राणी शास्त्र की पुस्तकें हैं. एक आले में हंस, पाखी, लहमी, वागर्थ, नया ज्ञानोदय जैसी मासिक त्रेमासिक पत्रिकाएं रखी हैं.

जलसा का पहला अंक भी है जिसके कवर पर चिर विवादित, धर्म नाशक, कुंठित और घोर साम्प्रदायिक कहे जाने वाले मेरे प्रिय बूढ़े बाबा का बनाया हुआ चित्र छपा हुआ है. मैं उस पर अधिक ध्यान नहीं देता क्योंकि मेरे यहाँ बरसात सात साल में एक बार होती है और धूप में छाता तानते ही हर कोई व्यंग करता है कि देखो लाट साहब या मेम साहब जा रही हैं इसलिए मेरे दिल में छातों की ख़ास क़द्र नहीं है
लेकिन तस्वीर से याद आता है कोई देश से निकल जाये तो भी वह दिल से कब निकलता है ?

एक निवार से बुनी हुई चारपाई बाहर निकालता हूँ, उसके पास टी टेबल पर लेपटोप रखता हूँ फिर ऊपर के आले में रखी शराब की तीन चार बोतलों में से रेंडमली कोई एक को बिना देखे नीचे खींच लेता हूँ. पहला पेग लेते ही जी मेल का कम्पोज ऑप्शन चुनता हूँ और कहानी लिखने लगता हूँ. तकरीबन बीस लाइन लिखने के बाद उसे ओटो सेव होने के लिए छोड़ देता हूँ... और किस काम की होती है शामें ? शराब पीने की या कहानियां लिखने की.

देर रात पत्नी कहती है तुम क्या हो... फिर पास आती और पूछती है, आज भी ? मैं कहता हूँ तुम मेरी कहानी पढो. मैं अभी नहा कर आता हूँ.

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