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Showing posts from April, 2010

कितने साये याद करूँ

दसों दिशाओं में आग बरसती है . रेत के सहरा में उठते हैं धूल और स्मृतियों के बवंडर . सन्नाटा पसर जाता है धुली हुई चादरों की तरह . घड़ी भर की छाँव में याद की पोटली से निकली कुछ हरे रंग की चूड़ियाँ , लू को थोडा सा विराम देती है. एक पीले रंग का ततैया पानी की मटकियों के पास काली मिटटी को खोदता हुआ , गरमी के बारे में शायद नहीं सोचता होगा. पिछले साल उसने दरवाजे के ठीक बीच में गलती से अपना घरोंदा बनाया था या फिर गलत जगह पर दरवाजा बना हुआ था . जैसे तुम्हें केजुअली याद करता हूं वैसे ही वह दरवाजा भी खुलता और बंद हुआ करता था . जाने किसकी आमद के इंतजार में महीनों से खुला वह दरवाज़ा एक दिन उकता कर अपने आप बंद हो गया . ततैये के घरोंदे से उसके सफ़ेद - पीली लट जैसे दस - बारह बच्चे धूप में गिरे और झुलस कर मर गए . जब ट्रेन तीन नंबर प्लेटफार्म छोड़ने को थी और मैं तुम्हारा हाथ थामे हुए , बस एक और पल की दुआ कर रहा था कि वही दरवाज़ा बहुत दिनों तक खुला रहन

मैं माओवादी नहीं हूँ

गरमियां फिर से लौट आई है दो दशक पहले ये दिन मौसम की तपन के नहीं हुआ करते थे. सबसे बड़े दिन के इंतजार में रातें सड़कों को नापने और हलवाईयों के बड़े कडाह में उबल रहे दूध को पीने की हुआ करती थी. वे कड़ाह इतने चपटे होते थे कि मुझे हमेशा लोमड़ी की दावत याद आ जाती थी, जिसमे सारस एक चपटी थाली में रखी दावत को उड़ा नहीं सका था. रात की मदहोश कर देने वाली ठंडक में सारा शहर खाना खाने के बाद दूध या पान की तलब से खिंचा हुआ चोराहों पर चला आया करता था. जिस तेजी से सब चीजें बदली है. उसी तरह फूलों के मुरझाने और रेत के तपने का कोई तय समय नहीं रहा है. बढ़ती हुई गरमी में मस्तिष्क का रासायनिक संतुलन गड़बड़ होने से जो दो तीन ख़याल मेरे को घेरे रहते हैं, वे बहुत राष्ट्र विरोधी है. कल रात को पहले एक ख़याल आया था कि आईस बार जैसा मेरा भी अपना एक बार हो. उसमे बैठने के लिए विशेष वस्त्र धारण करने पड़ें जो तीन चार डिग्री तापमान को बर्दाश्त करने के लिए उपयुक्त हों. जहाँ बरफ के प्यालों में दम ठंडी शराब रखी हों जो गले में एक आरी की तरह उतरे. जब ये सोच रहा था तब रात के आठ बजे थे और घर की छत पर तापमान था बयालीस डिग्री यानि

म्हें होग्यो फोफलियो

मिनिट मेड न्यूट्री लेमन की बोतल ख़त्म होने को थी तो सोचा कि थोडा सा ज़िन कल के लिए बचा लिया जाये. इसी उधेड़बुन में एक नीट पैग गले उतर गया. धुआं सा कुछ मुंह से उठा और आह बन कर हवा में खो गया. मेरी वाईफी आज मेरे लिए रेशनल कारपोरेशन के स्टोर से कुछ ख़ास किस्म के स्नेक्स लायी थी, वे भी कमबख्त और आग लगाने से नहीं चूके. अब आईस क्यूब का सहारा है और कल के हसीं दिन की ख़ास यादों का, जिनमे दोस्त तेरा दिल धड़कता था. अपने मोबाइल फोन के पास सफ़ेद चने रखता हुआ सोचता हूँ कि जल्दबाजी की वजह है नयी फसल के नए फल. कल सांगरियों की सब्जी बनी थी यानि मरुभूमि के कल्प वृक्ष खेजड़ी के फल की. उस सब्जी के बारे में सोचते हुए मुझे रतन सिंह जी की याद हो आई यानि आर एस हरियाणवी 'रतन'. आपने कभी अहमद हुसैन मोहम्मद हुसैन की आवाज़ में ग़ज़ल सुनी हो "सीने में समंदर के लावे सा सुलगता हूँ, मैं तेरी इनायत की बारिश को तरसता हूँ, चन्दन सा बदन उसका खुशबू का समंदर था, एक बार छुआ लेकिन अब तक महकता हूँ..." तो ये शाईर हैं जनाब रतन हरियाणवी. हरियाणवी जी से मैं साल निन्यानवे में मिला था. वे तब आकाशवाणी में उप निदेशक ह