किसी तरह तो जमे बज़्म

ख़ुशी और उदासी के लिए कितनी छोटी - छोटी सी बातें पर्याप्त होती है. कल शाम को डॉ. विजय माल्या मुझे बहुत उदास दीखे, चार घंटे बाद वही उदासी ख़ुशी में बदल गयी. वे आईपीएल में खेल रही अपनी टीम रोयल चेलेंजर बेंगलोर के लिए चीयर अप करने आये थे.

पहली सीजन के आगाज़ में ही विकेटकीपर बल्लेबाज मेक्यूलम ने सब गुड गोबर कर दिया था. रोयल चेलेंजर के गेंदबाजों की बेरहमी से धुलाई की. उस किवी खिलाडी की आतिशी पारी को देखते हुए कोलकाता नाईट राईडर टीम के फ्रेंचाईजी, सिनेमा के हीरो पद्मश्री शाहरुख खान साहब अपने बांके मुंह की टेढ़ी मुस्कान को बिखरते हुए नाचते रहे.

रोयल चैलेंजर के कैब में किंगफिशर एयरलाईन की हवाई सुंदरियाँ, फैशन शो में छाई रहने वाली, सूखी हुई काले पीले रंग की देह वाली केट्वाक गर्ल्स, अपने पांवों को विशेष ज्यामिति में सलीके से टेढ़े किये खड़ी हुई थी. उनके बीच में दक्षिणी केलिफोर्निया विश्विद्यालय से व्यवसाय क्षेत्र में डाक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित विजय माल्या अपने मातहतों को कोस रहे थे कि उनको अपनी पसंद के खिलाडी नहीं चुनने दिए गए और अब ये पजामा छाप बल्लेबाज उनके सम्मान की ऐसी तेसी कर रहे हैं. नीचे नई नवेली, मस्त बदन वाली चीयर गर्ल्स और फटाफट क्रिकेट के कोकटेल में दर्शक पगलाए जा रहे थे.

विजय माल्या साहब के इर्द गिर्द, मेक्डोवेल्स छाप का ताज़ा माल लिए जो सुंदरियाँ खड़ी थी. उनके गले की हड्डियाँ बाहर निकल चुकी थी और बदन पर कपड़े इस तरह लटके थे जैसे कपबोर्ड में हेंगर पर सिकुड़ी हुई नाईटी लटकी रहती है. वे भी बहुत हताश हुई थी. आधे खेल के बाद बीयर केन्स को भारी मन से विदा देनी पड़ी और एक सफलतम उद्योगपति छोटी सी हार से बेहद निराश होकर, अपनी टीम के खिलाड़ियों से मिले बिना चला गया.

अधिकतर लोग विजय माल्या को शराब व्यवसायी और टीपू सुल्तान की तलवार खरीदने वाले के तौर पर ही जानते हैं लेकिन एक वित्तीय वर्ष में संगठित उद्योग अवधारणा से पैंसठ फीसद टर्न ओवर बढाने का हुनर भी इन्ही के पास है. रसायन, जीवन विज्ञान, टेक्नोलोजी, उड्डयन और चिकित्सा सहित दर्जन भर व्यवसायों का सफलता पूर्वक संचालन भी करते है. हमारे देश में खेल और खिलाड़ियों को सुविधाओं के नाम पर रोना रोये जाने की एक तवील परंपरा है मगर करता कोई भी कुछ नहीं है. जबकि इसी हालत में माल्या साहब दो अभिजात्य और एक आम आदमी के खेल में सार्थक दखल रखते हैं.

वे ई लीग के क्लब ईस्ट बंगाल एफ सी के, साथ ही फ़ोर्स इण्डिया नामक फ़ॉर्मूला वन दौड़ में भाग लेने वाली टीम के भी मालिक हैं. अपनी टीमों को वे धन की कमी कभी नहीं आने देते हैं. पिछले साल उनके ड्राईवर जियानकार्लो फेसिचेल्ला ने उनकी फ़ोर्स इण्डिया टीम को बेल्जियन ग्रां प्री में दूसरा स्थान हासिल कर एक अंक दिलवा दिया था. किसी भी मोटर गाड़ी दौड़ाने वाली टीम के लिए एक अंक हासिल करना गर्व की बात होती है. साल 2009 में माल्या साहब को मोटर गाड़ी दौड़ के अलावा आई पी एल में भी सुख नसीब हुआ टीम ने फाईनल तक का सफ़र तय किया. पजामा छाप क्रिकेटरों के विशेषण से सम्मानित राहुल द्रविड़ साहब और उनके साथियों ने पजामे उतार फैंके और खुद को आधुनिक फटाफट क्रिकेट के योग्य खिलाड़ी साबित कर लिया.

मैं सोच रहा था कि आखिर माल्या साहब उदास क्यों बैठे हैं ? हालाँकि उनकी टीम एक मैच हार चुकी थी और कल दूसरा मैच था. इतना कामयाब व्यक्ति शायद इसी लिए उदास होता होगा कि उसके भीतर एक बड़े उद्योगपति के अतिरिक्त एक मासूम बच्चा अभी तक जिंदा है जो अब भी हार के अहसास से घबरा जाता है. उसमे एक तरुण का दिल भी है जो दुबली पतली देह वाली आकर्षक कही जाने वाली लड़कियों के अर्धनग्न कलेंडर छाप कर खुश होता है.

मैं पिछले तीन साल से यानि जब से ये खेल शुरू हुआ है, आरसीबी का फैन हूँ. उसकी ओफिसियल वेब साईट पर एक पंजीकृत समर्थक हूँ इसलिए नहीं कि मुझे शराब पसंद है और मैं रोज शराब पीने को दुनिया के सबसे अधिक सुखभरे कामों में एक काम मनाता हूँ, इसलिए भी नहीं कि माल्या साहब बेहतरीन शराब बनाने के करीब पहुंचने वाले हैं. इसलिए भी नहीं कि किंगफिशर की एयर होस्टेज अधिक सुन्दर और व्यवहारकुशल हैं. मगर इसलिए कि ईस्ट बंगाल सहित जिस भी खेल पर माल्या साहब धन व्यय करते हैं, वह मुझे उनका समर्थक बनाता है. फ़ुटबाल के अतिरिक्त भले ही दोनों खेल आम आदमी से बहुत दूर हैं फिर भी माल्या साहब का खेल के प्रति मन तो है. संभव है कभी वे कुश्ती और दौड़ भाग जैसी प्रतियोगिताओं के प्रतिभागियों के लिए धन उपलब्ध करा दें.

दुनिया के अरबपतियों में शुमार भारतीय, खेल के लिए बहुत उदासीन है. वे सिर्फ सुविधा संपन्न खिलाड़ियों के ओलम्पिक में पदक जीतने पर ही अपने खेल प्रेम से कोंपलें फूटते हुए देख पाते हैं मगर सुविधा उपलब्ध करने के नाम पर शून्य ही हैं.

कल रोबिन उथप्पा ने आतिशी पारी खेली और कालिस - कालिस का शोर मेरे भीतर उठता रहा. एक और शोर जो मेरे मन में उठा करता है, वह इन दिनों उदासीन है. मौसम में तेज गरमी आ पड़ी है फिर भी पिछली चार रातों से मेरे आईस क्यूब्स उदास से फ्रीजर में बंद है. चलते हुए फैज़ साहब का एक माकूल शेर...

किसी तरह तो जमे बज़्म मैकदे वालों
नहीं जो बादा-ओ-सागर तो हा-ओ-हू ही सही

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