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Showing posts from 2010

घर से भागी हुई दुनिया

ये दुनिया ऊबे हुए, निराश और भावनात्मक रूप से नितांत अकेले लोगों की सदी में प्रवेश कर चुकी है. इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के कुछ ही दिन शेष हैं. ख़ुशी और सुकून की तलाश में घर से भागी हुई दुनिया फिलहाल हांफने लगी है आगे की मंजिलें क्रमशः हताशा, अवसाद, पागलपन और विध्वंस है. ऐसा होना भी बेहद जरुरी है ताकि फिर से ताजा कोंपलें फूटें और कार्बन क्रेडिट का हिसाब बंद हो सके. आज क्रिसमस मनाया जा रहा है. दुनिया के सभी पर्वों और त्योहारों की तरह इस पावन अवसर को भी अवास्तविक बाज़ारवाद ने अपने शिकंजे में ले रखा है. रिश्तों की दरारें सामाजिक स्तर पर स्वीकृतियां पा चुकी है. इनकी मरम्मत करने के स्थान पर तन्हा होता जा रहा आज का समाज बेहतर दिखने की कोशिशों में लगा रहता है. अकेले हो चुके परिवार हर साल खरीददारी करने निकल जाते है और अपने आस पास उपभोग और मनोरंजन की सामग्री को जमा करके टूटते रिश्तों को भुलाने के नाकाम प्रयास करते हैं. इस बार मौसम की मार है. हालाँकि बर्फ़बारी के आंकड़े अस्सी के दशक को अभी मात नहीं कर पाए हैं लेकिन इन बीते हुए चालीस सालों के दौरान तकनीक के हवाले हो चुके मानवीय अहसासों के शोक में

गलियों की लड़की मैगी और रेत में मशालें

दुनिया बर्फ में दबी जा रही है. मैं सुबह उठ कर देखता हूँ कि व्हाईट स्पाईडर लिली पर अभी फूल आने बाकी है. एलोवेरा के धूसर लाल रंग के फूलों की बहार है. दूब ने अब नई जड़ें निकालनी शुरू की है और इन सर्दियों में वह यथासम्भव भूमि पर बिछ जाने की तैयारी मैं है. पिछले पंद्रह दिनों से चुटकी भर धूप के निकलते ही छोटे भाई की बीस साल पहले खरीदी गई बाइक पर सवार हो कर गाँव चला जाता हूँ. गाँव की ओर जाने वाले रास्ते पर चलते हुए ऐसा लगता है कि कोई अपनी माँ के पास लौट रहा हो. पेड़, पत्थर, कटाव, मोड़, जिप्सम और जो भी रास्ते में आता है सब जाना पहचाना लगता है. इस सफ़र में कम होती हुई दूरी भावनाओं को गाढ़ा करती रहती है. फ्लेशबैक में आहिस्ता घुसने की तरह कैर के पेड़ों में बैठे हुए मोर पर क्षणिक नज़र डाल कर नई चीजों की ओर देखता हूँ. घरों के आगे बन आई नई चारदीवारी और काँटों की बाड़ें मेरी ध्यान मुद्रा को तोड़ती है. सब रिश्तेदार गाँव में हैं. गाँव का एक ही फलसफा है लड़के लड़कियों के हाथ पीले कर दो कि बड़े होने पर रिश्ते नहीं मिलते. घर का कोई बूढा चला जाये, अब गाँव को जीमाणा तो है ही फिर क्यों ना बच्चों

पेंसिलें

आज के बाद स्कूल ले जाने के लिए तुम्हें आधी पेन्सिल मिला करेगी. पापा ने ऐसा कहा तब मैं बहुत डर गया था. मैं इंतज़ार करने लगा कि अब वे कहें स्कूल जाओ. उस सुबह मैंने बताया था कि मेरी पेन्सिल खो गई है. ऐसा एक ही सप्ताह में दूसरी बार हुआ था. मुझे याद नहीं कि उन दिनों पेन्सिल की कीमत अधिक हुआ करती थी या मेरे पिता को तनख्वाह कम मिलती थी या फिर वे मुझे अपनी चीजों को संभाल कर रखने का हुनर सिखाने के लिए प्रयत्न किया करते थे. पेन्सिल से कोई प्रेम नहीं था. मुझे पढना अच्छा नहीं लगता था. क्लासवर्क और होमवर्क की औपचारिकता को पूर्णाहुति देने के सिवा पेन्सिल किसी काम नहीं आया करती थी. उसकी लकड़ी का बुरादा बेहद फीका और ग्रेफाईट स्वादहीन हुआ करता. उनको छीलने से फूलों के आकार का जो कचरा बनता था अक्सर किसी उकताए हुए मास्टर की खीज निकालने के सामान में ढल जाता. मैं पेंसिलों को संभालने से ज्यादा प्यार खुली आँखों से सपने देखने को करता था. उन सपनों में बेहद सुंदर लड़कियाँ हुआ करती और किसी ताज़ातरीन अपराध की खुशबू फैली रहती. मेरे इन दोशीज़ा सपनों को स्कूल का कोलाहल या रेल की पटरी के टुकड़े से बनी हुई घंटी क्षत-विक्षत

खेत में धूप चुनती हुई लड़कियां

वो जो रास्ता था, कतई रास्ता नहीं जान पड़ता था यानि जिधर भी मुंह करो उधर की ओर जाता था. रेत के धोरों में कुछ काश्तकारों ने पानी खोज निकाला था. वे किसान मोटे मोटे कम्बल लिए आती हुई सरदी से पहले चने की जड़ों में नमी बनाये रखने की जुगत लगा चुके थे. मैं ट्रेक्टर पर बैठा हुआ ऊँची जगह पर पंहुचा तब नीचे हरे रंग के छोटे-छोटे कालीन से दिखाई पड़ने लगे. मुझे इसमें कोई खास दिलचस्पी नहीं थी कि ट्रेक्टर किस तरह से सीधे धोरे पर चढ़ जाता है. मैं सिर्फ अपने देस की सूखी ज़मीन को याद कर रहा था जो बारह सालों में दो एक बार हरी दिखती थी. मैं इन खेतों को देखने नहीं निकला था. ये खेत एक बोनस की तरह रास्ते में आ गए थे. हमें मेहनसर की शराब पीने जाना था. ये रजवाड़ों का एक पसंदीदा ब्रांड था. हेरिटेज लिकर के कई सारे ख्यात नामों में शेखावटी की इस शराब का अपना स्थान था. मैं जिसके ट्रेक्टर पर बैठा था, वह बड़ा ही दुनियावी आदमी था. खेतों में फव्वारों के लिए दिये जाने वाले सरकारी अनुदान के लिए दलाली किया करता था. अफसरों से सांठ-गाँठ थी. कार्यालयों के बाबुओं को उनका कमीशन खिलाता और शौकिया तौर पर लोगों को अपनी सफलता के प्रदर

और अब क्या ज़माना खराब आयेगा

पंडित शहर का है और घर के बड़े बूढ़े सब गाँव से आये हैं. गणपति की स्तुति के श्लोकों के अतिरिक्त पीली धोती धारण किये हुए पंडित जी क्या उच्चारण करते हैं ये मेरी समझ से परे है किन्तु विधि विधान से आयोजन चलता रहता है. जटाधारी नारियल के साथ एक मौली भेजी जानी है जिस पर गांठें लगनी है. ये गांठे इस परिवार की ओर से तय विवाह दिवस को निर्धारित करती हैं. इन गांठों को दुल्हे के घर में हर दिन एक एक कर के खोला जाता रहेगा और आखिरी गाँठ वाले दिन शादी होगी तो उन्हें हिसाब से दुल्हन के यहाँ बारात लेकर पहुच जाना है. कभी हमारे यहाँ तिथि-दिवसों का और कागज-पत्रियों का उपलब्ध होना असंभव बात थी. फेरी पर निकलने वाले गाँव के महाराज से हर कोई तिथि और दिवस पूछा करता था. खेतों में काम करने के सिवा कोई काम नहीं था. ये तो बहुत बाद की बात है, जब स्कूलों का अवतरण हुआ. मेरे पिता और ताऊ जी घर से पच्चीस किलोमीटर दूर पढने जाया करते थे. उन दिनों अनपढ़ लोगों से याददाश्त में भूल हो जाना बड़ी बात नहीं थी इसलिए नारियल के साथ मौली में बंधी गांठे ही विश्वसनीय सहारा होती थी. कई बार भूल से अधिक गांठें खोली जाने से बारातें एक दो दिन प

रास्ते सलामत रहें

उन्होंने सबसे पहले पत्थर की नक्काशीदार रेलिंग को तोड़ा फिर गोल घेरे में बनी दीवार को उखाड़ फैंका. इस तरह चौराहे का घूम चक्कर नंगा दिखाई देने लगा. अगली सुबह उन्होंने बाहर के बड़े घेरे को इस तरह साफ़ कर दिया जैसे यहाँ इतना बड़ा सर्कल कभी था ही नहीं. मैंने अपने जीवन के बेशकीमती सालों में उदासी और ख़ुशी के अहसासों को साथ लिए हुए इस चौराहे को देखा है. अब स्वामी विवेकानंद की आदमकद मूर्ति और एक हाई मास्ट लाईट का पोल रह गया है. इन्हें भी अगले कुछ दिनों में हटा लिया जायेगा. मेरे स्कूल के दिनों से ही ये चौराहा साल दर साल संवारा जाता रहा है. युवा दिवस और चिकित्सा महकमे की योजनाओं के बारे में जागरूकता रैली निकालने के लिए बच्चों को स्कूल से उठा कर यहाँ लाया जाता रहा है. वे बच्चे स्कूल के जेल जैसे माहौल से बाहर आकर भी यहाँ यकीनन स्वामी विवेकानंद के बारे में नहीं सोचते होंगे. उन्हें कतार न टूटने, माड़साब या बहिन जी के आदेशों की चिंता रहती होगी या फिर वे मूंगफली ठेलों और चाट पकौड़ी वालों तक भाग जाने की फिराक में रहते होंगे. अब बच्चों को थोड़ा और दूर तक जाना होगा कि ये जगह बचेगी नहीं. दोस्

भूख आदमी को छत तक चढ़ा देती है

नाईजीरिया को लोग भुखमरी के सिवा और किसी कारण से जानते हैं या नहीं लेकिन मैं जानता हूँ कि वहां एक अद्भुत संस्कृति है योरुबा.. योरुबा लोगों का एक लोकगीत बरसों पहले पढ़ा था. उसे एक किताब के पीछे लिख लिया. मेरी किताबें अक्सर खो जाया करती है. खोने का एक मात्र कारण उसे मांग कर ले जाने वालों का लौट कर न आना है. भाषाएँ दुनिया के किसी कोने में बोली जाती हों या उनका विकास हुआ हो मगर उनकी समझ हतप्रभ कर दिया करती है. मनुष्य के दैनंदिन जीवन के प्रसंग देवों को दी जाने वाली बलि से अधिक महत्वपूर्ण हुआ करते हैं. सामाजिक विकास की कामना और मुश्किलों के गीत कालजयी हो जाया करते हैं. मैं सोचता हूँ कि विद्वानों को और बहुत से अनुवाद करने चाहिए ताकि हम समझ सकें कि मनुष्य मात्र एक है. उसकी खुशियाँ और भय सर्वव्यापी है. मनुष्य द्वारा किये गए प्रेम का अनगढ़ रूप जितना खूबसूरत लोकगीतों में दिखता और चीरता हुआ हमारे भीतर प्रवेश करता है ऐसा और कोई माध्यम नहीं है. लोकगीतों में हर स्त्री-पुरुष को अपना अक्स दिखाई दे सकता है. मनुष्य का प्रेम रसायन भाषाओं के विकास से पहले का है. इस तथ्य को लोकगीत चिन्हित करते हैं. मेरा रसा

यही मौसम क्यूँ दरपेश है ?

मौसमों की कुंडली में सेंधमारी करके उन्हें तोड़ देने का हुनर अभी आया नहीं है. कुछ दिन बिना पिए रहे, कुछ सुबहों का मुंह देखा, कुछ शामें घर में बितायी, कुछ रातों को देर तक दीये जलाये और आखिर में रविवार को फिल्म देखने के लिए गए. इससे पहले मैंने साल दो हज़ार दो में गुजराती नाटक 'आंधलो पाटो' जैसी फिल्म आँखें देखी थी. वह फिल्म बैंक के एक मैनिक अधिकारी पर केन्द्रित थी. जो तीन अंधे लोगों को बैंक लूटने के लिए मजबूर करता है. इसे अंजाम तक पहुँचाने के लिए नायिका उन्हें दक्ष करती है. उसमे कई सारे शेड्स थे. उस फिल्म को देखे हुए आठ साल हो गए हैं. आँखें फिल्म से पहले जनवरी सत्तानवे में जयपुर के एक सिनेमा हाल में 'सपने' फिल्म देखी थी. उस फिल्म में गायक एस. पी. बाला सुब्रह्मण्यम ने अभिनय किया था. काजोल पर फिल्माए गए गीत आवारा भंवरे के अलावा मुझे फिल्म से अधिक उस दिन की याद है कि वह बीता किस तरह था. जाने क्यों अँधेरे कमरों में बैठ कर गल्प और अनुभूतियों के तिलिस्मों को देखना कभी रास आया ही नहीं. कितनी ही खूबसूरत फ़िल्में आई. उनको क्रिटिक से लेकर आम दर्शक ने सराहा. मैं फिर भी ज

ओ वादा शिकन...

आजकल, जाने क्यों आवाज़ें बड़ी साफ़ सुनाई देने लगी है. बाहर गली में किसी के पाजेब की रुणझुण कदम दर कदम करीब आती हुई सुनाई पड़ती है फिर किसी के चलने की कुछ आहटें है और कभी दिन भर, सांझ की राग सा बच्चों का शोर खिड़की तक आकर लौट जाता है. कितने सफ़र, कितने रास्ते उलझ गए हैं. बेचैन रहा करने के दिन याद आने लगे हैं. सलेटी जींस और ऑफ़ वाईट शर्ट पहने घूमने के दिन. ऑफिस, घर या बाज़ार सारा दिन होठों को जलाते हुए सिगरेट के कई पैकेट्स पीना ज़िन्दगी के कसैलेपन को ढक नहीं पाता था लेकिन खुद को राख सा बिखरते हुए देखना सुख देता था. अकेलापन यानि पत्तों के टूटने की आवाज़, टूटन को सुनना माने एक लाचारी. वे उसकी आवारगी के दिन नहीं थे. कुलवंत की दुकान से सुबह शुरू होती और दिन सिगरेट की तरह जलता ही रहता. रात होते ही शराब फिर सवेरे उठ कर बालकनी में आता और देखता कि गाड़ी कैसे खड़ी है. अगर वह सही पार्क की हुई मिलती तो शक होता कि रात को खाना खाने गया ही नहीं. अपने हाथों को सूंघता. अँगुलियों के बीच खाने की खुशबू होती तो लगता कि कल सब ठीक था. सरकारी फ्लेट पर वह इतनी पी चुका होता कि दुनिया के सारे खौफ गाय

इन आवाज़ों को शक्ल मिलने की दुआ करता हूँ

विकीलीक्स द्वारा सार्वजनिक की गई रपट के प्रति विश्व समुदाय को लम्बे समय से जिज्ञासा थी. पेंटागन और विकी के बीच पिछले कई सालों से इन तथ्यों को उद्घाटित किये जाने को लेकर कशमकश जारी थी. चार महीने पहले कुछ तस्वीरों के सार्वजनिक किये जाने के बाद अमेरिकी प्रशासन ने 'राष्ट्र हित' को ध्यान में रखने का बड़ा ही मार्मिक और देशभक्ति पूर्ण इमोशनल अनुरोध भी किया था कि विकी को अमेरिकी करतूतों को सार्वजनिक नहीं करना चाहिए. वे तस्वीरें ईराक में मानवीयता का गला रेत रहे गोरे, दम्भी और अमानुषिक अत्याचारों की थी. युद्ध अपराध से सम्बंधित जो दस्तावेज़ विकीलिंक्स पर सार्वजनिक किये गए हैं, उनका सत्य अमेरिका के इतिहास जितना ही पुराना है. ये साम्राज्यवादी चरित्र के असली चेहरे की घूंघट से दिख रही एक धुंधली सी छवि है. दुनिया पर काबिज हो जाने के लिए जंगल के कानून से भी बदतर तरीकों वाला ये साम्राज्यवादी अभियान समाज में नस्लभेद, जाति और चमड़ी के रंग के भेद को खुले आम बढ़ावा देता हुआ नस्लीय घृणा का सबसे बड़ा पोषक है. ज़मीन और समुद्र के बीच अपने अड्डे बनाते हुए दुनिया को अपने रहम और करम से पालने के

सोये हुए दिनों के कुछ पल

ऐसा नहीं है कि मैं आत्मरति के तिमिर में खो जाने के लिए एकाएक गायब हो जाया करता हूँ. मैं उन्हीं जगहों पर होता हूँ मगर खुद को उस लय में पा नहीं सकता. दिन के किसी वक्त या अक्सर सुबह कई परछाइयाँ मेरे सिरहाने उतर आती हैं. उनकी शक्लें बन नहीं पाती. वे या तो बहुत भारी या फिर उदास हुआ करती हैं कि मैं ऑफिस जाने के लिए जरूरी सामर्थ्य को खो बैठता हूँ. रिवाल्विंग चेयर या फिर सात फीट लम्बे चौड़े बिस्तर पर अधलेटा अलसाया हुआ तीन पंक्तियाँ लिखता और चार मिटाता रहता हूँ. एक भोगे हुए किन्तु बेचैन मन की तरह विलंबित लय में अपनी जगह बदलता रहता हूँ. दोपहर बाद पत्नी ऑफिस से लौट आती "मुझे नहीं लगता कि आज ऑफिस जा पाओगे" बस ऐसे ही कई दिन बीत गए हैं. ऑफिस गया भी और लौट भी आया. दर्ज करने लायक कुछ नहीं था. इन पंद्रह दिनों में रेल, शोर, शहर, माल, केफे, बर्गर, चायनीज़, स्पेनिश, सरकारी गाड़ियाँ और चौराहों पर खिले हुए फूलों की लघुतम स्मृतियां ही बची. याद रखने के तरीके सिखाने वाले कहते हैं कि आपको सिर्फ वही याद रहता है जिसे आप सख्त पसंद या सख्त नापसंद करते हैं. मेरी यादों में लगभग यही है. बीच की स

दिल तो रोता रहे और आँख से आंसू ना बहें

कहां कर रहे हो, कहां जा रहा है किये जाओ राजा मजा आ रहा है हम अपनी तमीज भूल चुके थे. ये जाने किसने कहा था, किसकी महफ़िल थी और जाने किसने सुना था. शराब का नशा और खिलने लगा. सोने जैसी रेत पर काली कलूटी सड़क, महान व्यक्ति के चरित्र पर काले कारनामों की रेख. इसी सड़क के किनारे रोटी के ढाबों का सिलसिला. बिछी हुई चारपाइयों पर चड्ढा ग़ज़ल गुनगुनाते हैं. दाल में बघार की खुशबू और मिट्टी पर गिरे हुए डीज़ल की मिली जुली गंध में रम के ग्लास की पहचान नहीं हो पाती. करमजीत पी नहीं रहा, चिंतित हो रहा है. कुछ लोग शराब के इस तरफ होते हैं कुछ उस तरफ. वो सूरतगढ़ अब दस साल पीछे छूट गया है. * * * बेतरतीब कटे हुए प्याज, दो सिकी हुई हरी मिर्च, टमाटर सॉस और ग्रीन लेबल विस्की. एक आँगन, एक कमरा, एक फोटो फ्रेम में मुस्काती हुई लड़की. इसने शायद देखा होगा कि आज रेणु इस कमरे में आई थी लेकिन शुक्र है कि तस्वीरें चुप रहना पसंद करती है. ठंडी रात, ठंडी रजाई और चित्रा के पहलू से आती हुई जगजीत सिंह की आवाज़. कभी सप्ताह भर शकील साहब के बोल बजते बेगम साहिबा की आवाज़ में, मेरे हमनफस मेरे हमनवा... महीने की तनख्

मीनारों से उतरती ऊब का मौसम

वाईट मिस्चीफ़ की बोतल में एक पैग बचा रह गया है. वह एक पैग किसी शाम के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता. बस उसे रोज़ देखता हूँ और आर सी पीने बैठ जाता हूँ. विस्की के साथ ज़िन को पीने का कोई मतलब नहीं है इसलिए हर रात वह बचा रह जाता है. एक सफ़ेद पोलीथिन का लिफाफा रखा है. इसमें कॉलेज और नौकरी के शुरूआती दिनों की स्मृतियां है. ख़तों में शुभकामनाएं, ग्रीटिंग कार्ड्स में सुनहरी स्याही से लिखी दुआएं और कुछ पासपोर्ट साइज़ के फोटोग्राफ्स है. इन ख़तों और तस्वीरों का कोई मतलब नहीं है फिर भी वे कई सालों से बचे हुए हैं. कुछ कार्ड्स मुझे अपील करते हैं. ये अपील उस उपेक्षित किले जैसी है जिसमें बरसों से कोई पदचाप नहीं सुनाई देती, जिसकी घुड़साल से घोड़े समय के पंख लगा कर उड़ गए हैं. तीमारदारी में लगे रहने वाले सेवक काली बिल्लियों में बदल गए हैं और मेहराबों के पास के झरोखों में बैठे एक आँख से टोह ले रहे हैं. ऐसे में एक ऊब चुप से पसरती हुई घेरने लगती है. मुझे इसकी आदत है. बरसों से ऐसा होता आया है कि ऊब के आते ही मैं समर्पण करने लगता हूँ. यह अनचाहा न होकर स्वेच्छिक होता है. जैसे पहले प्रेम में कोई

शोक का पुल और तालाब की पाल पर बैठे, विसर्जित गणेश

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[4] ये हमारी यात्रा की समापन कड़ी है.  सुख लीर झीर बजूके की तरह खड़ा रहता है और दुख के पंछी स्याह पांखें फैलाये हमारे जीवन को चुगते रहते हैं। कवास गाँव में बना सड़क पुल सैंकड़ों परिवारों के शोक की स्मृति है। इस पुल के नीचे सूखी रेत उड़ रही है। नदी अलोप हो चुकी है। रेगिस्तान में इस रास्ते सौ साल में एक बार नदी बहती है। किसी को ठीक से नहीं मालूम कि पिछली बार नदी कब आई थी और आगे कब आ सकती है। अभी चार साल पहले कुछ एक दिन की लगातार बरसात के बाद पानी के बहाव ने नालों का रूप लेना शुरू किया था। प्रशासन ने मुनादी करवाई कि अपने घर खाली कर लें। कभी भी नदी आ सकती है। रेगिस्तान का आदमी जीवन में दुख और संकट के बारे में अधिक नहीं सोचता। वह छाछ पीकर सो जाता है। उसके पास उपहास होता है "हमें आवे है नदी" उसके चेहरे पर व्यंग्य की लकीरें खिल आती हैं। पीने के पानी को तरसने वाले रेगिस्तान में रह रहे लोगों से कोई ये कहे कि नदी आ रही है तो भला कौन मानेगा। किसी ने नहीं माना। शाम की मुनादी के बाद तड़के तक कवास पानी में डूब गया। मिर्ज़ा ग़ालिब ने कहा "हुये मरके हम जो रुसवा हुये क्यों न गर

आओ शिनचैन लड़कियों के शिकार पर चलें

[3] हम उसे केवल छूकर देखना चाहते थे। हो सकता है पल भर उसके साथ होने की इच्छा थी। संभव है केवल घड़ी भर उसके साथ जी लेने का मन था। किसी को पाने की कामना का कोई बहुत दीर्घकालीन उद्धेश्य हो ज़रूरी नहीं है। सम्बन्धों में, चाहनाओं में, इच्छाओं में, आवश्यकताओं में कुछ भी स्थायी नहीं होता। रेल से होड़ करने की चाह रखने वाला दस साल का लड़का कुछ एक मिनट में उस चाहना को भूल गया। नाडी के बाहर बबूल के नीचे बैठे देवताओं के पास से एक जीप होर्न बजाते हुए निकली। विकट तो नहीं पर मोड़ है। यहाँ पर हॉर्न देना अच्छा है। चाहे वह देवताओं के लिए हो कि सामने से आने वालों को सचेत करने के लिए हो। हम जिप्सम हाल्ट पहुँच गए। रेल पीछे छूट गई थी। दुशु रेल को ही देख रहा था लेकिन आश्चर्य कि उसे रेल को हरा देने में मजा नहीं आया। रेल पास ही है। मैं नेशनल हाईवे पर रफ़्तार नहीं बढ़ाता हूँ। मुझे रेल से होड़ में कोई दिलचस्पी नहीं। इसलिए कि जब आप किसी से मुक़ाबले में उतरते हैं तब केवल एक स्पर्धा में कीमती जीवन बीत जाता है। मुझे ऐसा न करने का फल मिल गया। सड़क पर हलचल दिखाई दी। मेंने कहा- "दुशु उसे देखो" वह मेरी बग

हरे रंग के आईस क्यूब्स

[2] "हाँ भईया गाडी जा री है गढ़ड़े" मेरा रेगिस्तानी क़स्बाई बचपन फेरी की इस आवाज़ से भरा हुआ है। फिर थोड़ा रुककर "मिरचोंओओओं...." सायकिल के करियर और कैंची के बीच मिर्च की बोरियाँ रखे हुये ऊकजी दिख जाते थे। "मिरचोंओओओं.... मथाणीया री मिरचों। छेका आओ भाई गाड़ी जा री है गढ़ड़े" मिर्च रेगिस्तान के भोजन में इस तरह शामिल है जैसे हमारे जीवन में सांस। घर में सूखी लाल मिर्च है माने हर तरह का साग रखा हुआ है। लाल मिर्च नहीं माने जीवन की रसद खत्म हो गयी है। अच्छी लाल मिर्च मथानियां से ही आती थी। खाने में थोड़ी मीठी भी लगती थी। कथा संसार में सूखे मेवे बेचने वाले फेरीवाले हुआ करते थे लेकिन हमारा मेवा यही था। मिर्च और कच्चे लहसुन की चटनी घर में बन जाती तो माँ कड़ी नज़र रखती थी। सलीके से राशनिंग होती थी। ये हमारा सूखा मेवा था या नहीं मगर मोहल्ले भर की औरतें ऊकजी को शिकायत करती "हमके मोड़ा आया" ऊकजी कहते- "सरकारी नौकरी है टैम ही कोनी मिले" कलल्जी के पालिए के पास ऊकाराम कृषि फार्म का बोर्ड देखते ही में लाल मिर्च की याद से भर उठता हूँ। मुंह में चटनी

मुंह के बल औंधे गिरे हों और लॉटरी लग जाये

तुमको एक लट्टू की तरह घुमाकर धरती पर छोड़ दिया गया है। तुम्हारा काम है घूमते जाना और देखते-सीखते रहना। लुढ़क तो एक दिन अपने आप जाओगे।  जीवन आरोहण में उम्र कम होती जाती है और जीवन बढ़ता जाता है। उम्र की तस्वीर में रेखाओं की बढ़ोतरी जीवन चौपड़ की अनेक कहानियाँ कहती हैं। मनुष्य एक आखेटक है। वह अपने रोमांच और जीवन यापन के लिए निरंतर यात्रा में बना रहता है। असल में यात्रा ही जीवन है। अगर सलीके से दर्ज़ कीजाए तो कुछ बेहद छोटी यात्राएं भी हमें अनूठे आनंद से भर देती हैं। मेरा बेटा ऐसी ही एक छोटी सी यात्रा पर मेरे साथ था।  इस दौर के बच्चे सबसे अधिक सितम बरदाश्त कर रहे हैं। उनको अनवरत माता-पिता की लालसा और पिछड़ जाने के भय की मरीचिका में दौड़ते जाना होता है। दस साल का बच्चा है और चौथी कक्षा में पढ़ता है। समझदार लोगों से प्रभावित उसकी मम्मा कहती है कि ये एक साल पीछे चल रहा है. मैं कहता हूँ कोई बात नहीं एक साल कम नौकरी करनी पड़ेगी। हम सब अपने बच्चों को अच्छा नौकर ही तो बनाना चाहते हैं। दरिया खत्म, बांध तैयार। लेकिन फ़िलहाल हम दोनों में ये तय है कि वह जैसे पढ़ और बढ़ रहा है, उसकी मदद की जाये। 

मैं तुम्हारी आँखों को नए चिड़ियाघर जैसा रंग देना चाहती हूँ

डिक नोर्टन को कम ही लोग जानते हैं. मैं भी नहीं जानता. उसके बारे में सिर्फ इतना पता है कि वह एक विलक्षण लड़की का दोस्त था. उससे दो साल आगे पढ़ता था. उस लड़की ने उसे टूट कर चाहा था. वह कहती थी, तुम्हारी साफ़ आँखें सबसे अच्छी है मैं इनमे बतखें और रंग भर देना चाहती हूँ एक नए चिड़ियाघर जैसा... उस लड़की का नाम सिल्विया प्लेथ था. हां ये वही अद्भुत कवयित्री है जिसने लघु गल्पनुमा आत्मकथा लिखी और उसका शीर्षक रखा 'द बेल जार' यानि एक ऐसा कांच का मर्तबान जो चीजों की हिफाज़त के लिए ढ़क्कन की तरह बना है. प्लेथ ने आठ साल की उम्र में पहली कविता लिखी थी. इसके बाद उसने निरंतर विद्यालयी और कॉलेज स्तर की साहित्यिक प्रतियोगिताएं जीती. उसके पास एक मुक्कमल परिवार नहीं था. वह अकेले ही नई मंजिलें गढ़ती और फिर उन पर विजय पाने को चल देती थी. उसके भीतर एक प्यास थी कि वह दुनिया को खूबसूरत कविताओं से भर देना चाहती थी. वह पेंटिग करती थी. उसे गाने का भी शौक था. उसने कुछ एक छोटी कहानियां भी लिखी. जो उसने हासिल किया वह सब दुनिया की नज़र में ख़ास था किन्तु स्वयं उससे प्रभावित नहीं थी. उसकी कविता

दिनेश जोशी, आपकी याद आ रही है.

अब उस बात को बीस साल हो गए हैं. वे फाके के दिन थे. शाही समौसे और नसरानी सिनेमा की दायीं और मिलने वाली चाय के सहारे निकल जाया करते थे. उन्हीं दिनों के प्रिय व्यक्ति दिनेश जोशी कल याद आये तो वे दिन भी बेशुमार याद आये. मैं डेस्क पर बैठ कर कई महीनों से प्रेस विज्ञप्तियां ठीक करते हुए इस इंतजार में था कि कभी डेट लाइन में उन सबको भी क्रेडिट मिला करेगी, जो अख़बार के लिए खबरें इस हद तक ठीक करते हैं कि याद नहीं रहता असल ख़बर क्या थी. हमारे अख़बार के दफ्तर में ग्राउंड फ्लोर पर प्रिंटिंग प्रेस और ऊपर के माले में एक हाल के तीन पार्टीशन करके अलग चेंबर बनाये हुए थे. एक में खबरों के बटर पेपर निकलते थे दूसरी तरफ पेस्टिंग, ले आउट और पेज मेकिंग का काम होता था. बाहर की तरफ हाल में रखी एक बड़ी टेबल पर तीन चार लोग, जो खुद को पत्रकार समझते थे, बैठा करते थे. मैं भी उनके साथ बैठ जाया करता था. एक सांध्य दैनिक में काम करते हुए कभी ऐसे अवसर नहीं मिलते कि आप कुछ सीख पाएं, सिवा इसके कि हर बात में कहना "उसको कुछ नहीं आता". इसी तरह के संवादों से दिन बीतते जाते हैं. ऐसे अखबारों के हीरो क्र

हम तुम... नहीं सिर्फ तुम

अभी बहुत आनंद आ रहा है. रात के ठीक नौ बज कर बीस मिनट हुए हैं और मेरा दिल कहता है कुछ लिखा जाये. खुश इसलिए हूँ कि चार दिन के बुखार के बाद आज सुबह बीवी की डांट से बच गया कि मैंने दिन में अपने ब्लॉग का टेम्पलेट लगभग अपनी पसंद से बदल लिया कि एक दोस्त ने पूछा तबियत कैसी है कि अभी आर सी की नई बोतल निकाल ली है... हाय पांच सात दिन बाद दो पैग मिले तो कितना अच्छा लगता है. सुबह ख़राब हो गई थी. मेरे समाचार पत्र ने अपने परिशिष्ट का रंग रूप तो बदला मगर आदतें नहीं बदली. यानि वही सांप वाली फितरत कि मध्य प्रदेश में व्यापार करने और अख़बार के पांव जमाने को भारतीय जनता पार्टी को गाली दो लेकिन हिंदुस्तान की खुशनुमा फेमिली के तौर पर भाजपा नेता शाहनवाज हुसैन और उसकी पत्नी का इंटरव्यू छापो. चाचा, कृष्ण के वैज्ञानिक तत्व पर शोध की पोल यहीं खुल जाती है. तुमसे तो कुलिश साहब अच्छे थे कि जो करते थे, वही कहते भी थे. तुम मीर तकी मीर से शाहिद मीर तक को भुला देना चाहते हो और संगीत में अन्नू मलिक को हिंदुस्तान का सिरमौर मनवाना चाहते हो, कि तुम्हें सब भूल जाता है और एक आमिर खान का लास्ट पेज पर पांच सेंटी मी

अफीम सिर्फ एक पौधे के रस को नहीं कहते हैं

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उसे मरने से बीस दिन पहले अस्पताल में लाया गया था. उसने ज़िन्दगी के आखिरी दिन एक पुलिसकर्मी की परछाई देखते हुए बिताये थे. वह लीवर और ह्रदय के निराशाजनक प्रदर्शन से पीड़ित थी. उसका नाम एलोनोरा फेगन था और बेल्ली होलीडे के नाम से पहचानी जाती थी. वह अमेरिका की मशहूर जोज़ गायिका थी. पैंतालीस साल की होने से पहले ही मर गई. उसे अफीम से बेहद लगाव था. इसके लिए वह कुछ भी कर सकती थी. कुछ भी यानि कुछ भी...इंसान की अपनी कमजोरियां होती है. उसकी भी थी. मुझे लगता है कि उसकी ज़िन्दगी के आखिरी दिन उस भारतीय आम एकल परिवार जैसे थे. जिसमे पत्नी या पति को विवाहपूर्व या विवाहेत्तर सम्बंधों का पता चल जाये फिर तुरंत रोने -धोने, लड़ने - झगड़ने और आरोप - प्रत्यारोप के बाद अपराधी को अन्य परिवारजनों द्वारा नज़रबंद कर दिया जाये. ऐसे ही लेडी डे के नाम से मशहूर उस स्त्री के हालात रहे होंगे कि वह अपनी कमजोरियों पर बैठे एक पहरेदार को देखते हुए मर गई और ठीक इसी तरह कई परिवार भी तबाह हो गए. नशाखोरी और देहिक सम्बन्धों की चाह सभ्य समाज में अनुचित है, अपराधिक है... मगर है. हमारा समाज कथित रूप से बहुत ही सभ्य है. सभ्य

ब्रिटनी मर्फी और ये याद का टीला

पानी के बह जाने के बाद रेत पर जानवरों के खुरों के निशान बन आये हैं. उन्हीं के साथ चलता हुआ एक छोर पर पहुँच कर बैठ जाता हूँ. सामने एक मैदान है. थोड़ा भूरा थोड़ा हरा. शाम ढलने में वक़्त है. ये विक्रमादित्य का टीला नहीं है, ये किसी प्रेयसी की याद का टीला है. यहाँ से एक काफिला किसी सुंदरी को जबरन लेकर गुजरा होगा. वह कितनी उदास रही होगी कि पूरे रस्ते में वही अहसास पीछे छोड़ गई है. मैं भी अक्सर चला आया करता हूँ. मैं अपने साथ कुछ नहीं लाता. पानी, किताब, सेल फोन जैसी चीजें घर पे छोड़ कर आता हूँ. मेरे साथ कई दिनों के उलझे हुए विचार होते हैं. मैं उनको रेत की सलवटों पर करीने से रखता हूँ. रेत की एक लहर से आकर कई सारी लहरें मिल रही हैं. इन्हीं में एक ख्याल है साईमन मार्क मोंजेक का, वह उसी साल दुनिया में आया था जिस साल मैंने अपनी आँखें खोली थी. मैं इस समय रेत के आग़ोश में किसी को सोच रहा हूँ और वह होलीवुड की फोरेस्ट लान में बनी अपनी कब्र में दफ़्न है. वह बहुत ख्यात आदमी नहीं था. उसने दो तीन प्रेम और इतनी ही शादियाँ की थी. इसमें भी कुछ ख़ास नहीं था कि उसने कुछ फिल्मे बनाई, निर्देशन

क्रश... क्रश... क्रश.. काश, लोबान की गंध से बचा रहूँ.

आसमां में बादलों के फाहे देखता हूँ और कमरे में अपने वजूद की तरह बिखरी बिखरी चीजें. म्यूजिक सिस्टम के स्क्रीन पर वेव्ज उठ कर गिर रही है. लोक संगीत के सुर बज रहे हैं. रात में रीपीट मोड में प्ले किया था. तीन बजे के बाद शायद दीवारों ने सुना होगा, मुझे नींद आ गई थी. इन दिनों में व्यस्त भी बहुत हूँ और खुश भी तो याद आता है कि ऐसा ही दस साल पहले भी था. उन सालों में ज़िन्दगी ने मुझे एक साथ कई वजीफे दे रखे थे. मैं जिधर देखता था मुहब्बत थी. एक सुबह राजेश चड्ढा ने कहा 'चलो, आपको लैला - मजनूं की मज़ार दिखाते हैं.' वो रेत का दरिया ही था, जिसमें से हम गुजर रहे थे. कोई एक सौ किलोमीटर से भी ज्यादा पाकिस्तान की तरफ चलते रहने के बाद हम गाड़ी से उतर गए. मेरे कदम जिस तरफ बढ़ रहे थे, उसी तरफ से लोबान की गंध तेज होती जा रही थी. मैंने लैला मजनूं का किस्सा बचपन में सुना था. मेरी स्मृतियों में मजनूं अरब देशों के रेगिस्तान में भटकते हुए मुहब्बत की फ़रियाद करता था. उस दिन अचानक मैं उसकी मज़ार के सामने खड़ा था. मुझे नहीं मालूम कि उन दो मज़ारों का सच क्या है किन्तु वहां से लौटते ही मैं अगली रात की ग

धोधे खां की बकरियां और विभूति नारायण राय

इस रेगिस्तान में जन्मे धोधे खां की अंतर्राष्ट्रीय पहचान है. वे एक बहुत दुबले पतले और पांच वक़्त के नमाजी इंसान है. उनके पास जो संपत्ति है. वह एक झोले में समा जाती है. जो नहीं समा पाता वह है बकरियों का रेवड़ और कुछ किले ज़मीन. उन्होंने राजीव गाँधी की शादी में अलगोजा के स्वर बिखेरे थे. उनका मानना है कि इस संगीत को सुन कर इंदिरा गाँधी प्रसन्न हो गई थी. उन्होंने अपने हाथ से कुछ सौगात भी दी थी. भले ही अलगोजा जैसा वाद्य हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में शहनाई जितना उचित सम्मान न पा सका हो लेकिन उन्हें फ़ख्र है कि दिल्ली एशियाड का आगाज़ अलगोजा के स्वर से ही हुआ था. मैंने जाने कितने ही घंटे उनके अलगोजा को सुनते हुए बियाते हैं. वे मेरी ज़िन्दगी के सबसे सुकून भरे पल थे. वह ख़ास कलाकार इतना सहज है कि रिकार्डिंग स्टूडियो और बबूल के पेड़ की छाँव में फर्क नहीं करता. इसीलिए मैं उसका मुरीद भी हूँ. मैंने बहुत नहीं तो कुछ नामी कलाकारों के पास बैठने का अवसर पाया है लेकिन इस सादगी को वहां नहीं पा सका. धोधे खां ने दुनिया के पचास से अधिक देश देखे होंगे और वहां के लोगों का प्यार पाया होगा. उनकी गह